जय माँ शारदे
विषय क्रमांक-335
विषय-बावरा मन
विधा-कविता
दिनांक-१५/९/२०२१
बावरा मन बड़ा चंचल,जाने क्यों बन कर अचल।
बस चिंतन के सरोवर में ,बहता जाता है अविरल।
बावरा मन कहाँ कब कुछ समझ पाता है
हर वक्त यह बच्चो की तरह मचल जाता है।
कभी चाहता है,आसमां के तारे तोड़कर लाना
कभी चाहता है,चाँद को अपने घर लाना।
कभी चाहता है, पक्षी बनकर स्वछंद उड़ जाना।
कभी चाहता है,नदियों की तरह सागर में मिल जाना
चाहता है,फूल बन अपनी महक से बगिया महकाना।
जितना कुछ यह बावरा मन करना चाहता है।
अपनी मुट्ठी में सारे जहां की खुशियां समेटना चाहता है।
कुछ पाने की खुशी,कुछ खोने का डर सताता है।
इस उथल पुथल में मन हमेसा बेचैन सा रहता है।
मै कैसे समझाऊं ,इस बावरे मन को
अशान्त मन नकारात्मक विचारों को जन्म देता है
सकारात्मक सोच,सब्र का फल हमेशा मीठा होता है।
ए मेरे बावरे मन तू बस आज में "जी"
क्यो कल के लिए परेशान होता है।
#ब्लॉग
©️ममता गुप्ता✍️
अलवर राजस्थान
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