नमन -मंच
वार -बुधवार
तिथि- 8 सितंबर 21
विषय -अन्याय
विधा -लघुकथा
"अरे !पागल हो गई हो शालिनी?
दो दिन बाद तुम्हारी शादी है और तुम लगी हो उस रेप केस के दरिंदो को सजा दिलाने।"
"धरना लगा कर बैठी हो। उसको न्याय दिलाने के चक्कर में अपना जीवन क्यों खराब कर रही हो?"
वो तो चली गई। कल को कोई ऊंँच नीच हो गई तुम्हारे साथ तो...
अरे !मांँ बस करो। ऊंँच -नीच के डर से नारी का अस्तित्व ही ख़त्म कर दूंँ तुम्हारी तरह।
फिर शालिनी ने एक लंबी सांस ली और बोली,"मांँ मुझे माफ करना। छोटा मुँह बड़ी बात कह रही हूँ पर मुझे बताओगी तुम्हारा क्या वजूद है इस घर मे? शादी तुम्हारी इस शर्त पर हुई की नौकरी नहीं करोगी फिर ससुराल आकर अपनी इच्छाओं को मारकर पति सास ससुर की सेवा में तन –मन सब कुछ लगा दिया। ,तुम ये भी भूल गई तुम्हारा अपना भी कोई अस्तित्व है। "फिर मिला क्या?"पति और उनके घर वालों ने तुम्हे ही छोड़ दिया।वो भी सिर्फ़ इसलिए क्योंकि तुम उन्हें बेटा नहीं दे पाई ।
"मैं यूं अन्याय नहीं सह सकती मांँ।"
मैं नारी के अस्तित्व को मिटने नहीं दे सकती मुझेअभी बहुत लड़ना है ।
कहती हुई आंँखो में अनोखा तेज़ लेकर शालिनी चल दी
अन्याय के खिलाफ लड़ने...
स्वरचित
गीता लकवाल
जयपुर राजस्थान
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