'जय माँ शारदे'
विषय क्रमांक-331
विषय- वो लम्हें
विधा- आलेख
दिनांक-06-09-2021
वो दौर हस्त- लिखित रचनाओं का दौर था ---- बहुत- सी काव्य- कथा- निबंध प्रतियोगिता में मैं सहभागी हुआ करती थी आज की तरह ही-----!
हिन्दी साहित्य अकादमी ' कहानी प्रतियोगिता में मेरी कहानी ' डूबते हुए सच ' को गुजरात राज्य में प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ था----
यूनिवर्सिटी सेनेट हाॅल विद्यार्थी व विद्वान गुरूजनों के आवन- जावन, अगर की धूप और सरस्वती वंदना की मधुर धुन से आह्लादिक था----!
वृहत स्टेज फूलों से सुसज्जित एवं माँ शारदे की प्रतिमा पीताम्बरी पुष्पों से शोभायमान एक अनोखा- अनूठा वातावरण---- अवस्मरणीय---!
और वो लम्हा भी आ गया जब मुझे श्री श्री गुरूवर विद्वान शिरोमणी आचार्य श्री के.का.शास्त्री जी के हाथों रजत- चंद्रक प्राप्त हुआ----!
वास्तविकता थी या स्वप्न----!
जब मुझे अपना प्रतिभाव व्यक्त करने के लिये माइक दिया गया तब मेरे शब्द ब्रह्म थे क्योंकि मेरी पूर्व तैयारी का एक भी शब्द स्मरण नहीं रहा था---!
वास्तविक! लेकिन स्वप्न से वो लम्हें लेखन के लिऐ प्रेरणास्वरूप बने हुए हैं आज भी-----।
---- निकुंज शरद जानी
स्वरचित और मौलिक आलेख सादर प्रस्तुत है।
'जय माँ शारदे '
विषय क्रमांक-335
विषय- बावरा मन
विधा- कविता
दिनांक-15-09-2021
समीक्षा हेतु सादर प्रेषित-
बावरा मन
----------------
क्षण भर जिसे राहत नहीं!
चाहतों का कोई छोर नहीं!
आँखों से ओझल हो जाए चाहे
मन की डगर ना जाए कोई!
आस- विश्वास की पनाह खोजने
मानो निकल पड़ा अनजान राह बटोही!
डगर- डगर छांव चितवन
फिर भी हृदय-ताप प्रज्जवलन!
अनुराग- राग की कितनी ही परतों में
स्वयं को ही बिसरा बैठा निर्मोही!
कब सुनता अपनी बावरा मन!
अरमानों के पंख पहन
छटपटाहट के गूढ़ रहस्यों में
अपनी उद्वेगना को छलता नित्!
कभी किसी ठांव राहत ना पाता बटोही!
छलना से इस संसार में
पल दो पल का है बसेरा
फिर भी इसे अपना मुकाम समझ बैठा वह!
जाते हुए देखता रहा औरों को
फिर भी वास्तविकता से आँखे चुराता
निज- मोही!
प्रेम- प्रीत के ढाई आखर ना पढ़ पाए
जीवन भर!
नफ़रत को उकेर लेता क्षण- भर!
एक अलख ऐसी जगाए
राह चला जा रहा अनदेखी!!!
बावरा मन!
भटके ऐसे!
मृगतृष्णा हो जैसे!
कस्तूरी स्वयं में समाये
सुगंध की आस लगाऐ बैठा
अनकही----!!!
----निकुंज शरद जानी
स्वरचित और मौलिक काव्य सादर प्रस्तुत है।
तरही ग़ज़ल
जवाब देंहटाएंवज़्न-- 1222 1222 1222 1222
नयी उजली दिखी शय गुलिस्तां हो ये मनोभावन
लगे है चमक जैसे रीझ हम इनमें बसा सावन।
मनाए किस तरह सावन करोना से डरा हर जन
बहन भाई मिले राखी ये दरमियाँ पाया खड़ा सावन।
तड़पता दिल बिना भाई उसे संदेश दे देना,
समझ लूँगी तुझे उस समय से आया भरा सावन।
पत्तों से सरकती जाये सभी बूँदो की सरस टोली
उठा यह मन मयूरी नृत्य करने आ गया सावन।
न जाने है वहाँ पर तुम हुए रहते सदा सोये
न तुम आये न खत आया मुझे तड़पा गया सावन।
बुलाये पर्व राखी का सताना सा लिया सावन
तड़फ दोनों ने पाया जब बिरह बन आया भरा सावन।
रेखा २३/८/२१