स्मृति शेष
तुम्हारे प्रवास के बाद
प्रियतम की पथराई आंखों की
ख़ामोशी को
देखा था मैंने।
जो लरजते आँसूओं को
बरबस दबाते रहे!
फड़फड़ाते होठ,
जिससे ध्वनित होनी
चाहती थी भावनाएं।
जिनको पीते रहे सोम-रस की तरह।
वियोग संतप्त-संततियाँ
करती थी क्रंदन
दुःख कातर आँखे
तलाशती रहती ममत्व को
सकल जगत है विहीन
कुछ है आश
स्वयं के परिजनों से।
प्रतियोगिता है सबमें
अधिकाधिक सहानुभूति प्रर्दशन की।
कुछ ऐसे भी हैं तुम्हारे अपने
अपने दुःखी नयनों से
गंगा-जमुना प्रवाहित करते रहे।
भाव विह्वल क्रंदन से
गगनांचल का सीना चीरते हुए
अर्द्ध चेतन होकर
दूसरों के सहारे बैठे हुए
होती रही उन पर करूणा की वर्षा
पर स्थिति सत्यता से पृथक
भावना है शून्य
अंतर्मन में खुशी
तुम्हारे हक को पाने की
पदासीन होने की
संचित विभूति को
सहजता से अर्पित करने की।
दूर पड़ा वह बेल
जिसे तूने दिया था सहारा
सिंचित किया था श्रमबिन्दू से
जो अपनी छाँह तूझे
देने को है तत्पर।
देख तुम होती थी हर्षित,
परन्तु उपेक्षित
नहीं है किसी का ध्यान
वह है क्लांत,
पर बहाता नहीं आँसू
हिलते नहीं होठ
वह है जड़वत
चेतना शून्य,
दूर चला गया माली
न मिलेगा उन हाथों को सहारा
न मिलेगा अमृत जल
न मिलेगी तेरी आँचल से
नि:सृत वह प्राणवायु
अब यह गयी है मात्र
तुम्हारी स्मृति शेष।।
डॉ संजय चौहान,
पंजाब विश्वविद्यालय अमृतसर, पंजाब, भारत।
मर्मस्पर्शी रचना
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