शीर्षक – आम आदमी
दिनांक – 30 नवम्बर 2021
अक्सर जब भी कोई किसी से पूछता है,
कि कौन हो तुम ?
तब वह कहता हैं कि आम आदमी हूं। भीड़ का एक अंश होकर भी भीड़ में अकेला हूं।
नित्य सुबह उठता हूँ,
जीवन की भट्ठी में तपता हूँ,
रूखा-सुखा जो मिला,
उसी में जीवन काटता हूँ।
न महलों की ख्वाइश है,
न हीरे-मोती की चाह है,
दो जून रोटी मिले सकून से,
प्रभु से बस यही आस है।
आम आदमी कि विवशता है,
ना वह भीख मांग सकता है,
ना अपनों को भूखा सुला सकता है,
परिवार के दायित्वों तले,
वह नित्य पीसता है,
इमारत, सड़क, बाजार,
मिल, कल-कारखानों में वह,
मशीनों जैसा पीसता है,
सोचता है क्या वाकई वह इंसान है?
कभी-कभी तो वह,
आंसूओं के संग-संग,
खून के घूंट भी पीकर रह जाता है,
प्रेम के दो शब्दों पर,
आम आदमी बिना मूल्य बिक जाता है।
- मंजू लोढ़ा, स्वरचित
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