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बुधवार, 8 सितंबर 2021

रचनाकार :- आ. अर्चना सिंह 'जया' जी 🏆🏅🏆

नमन मंच 
वार- बुधवार 
दिनांक- 8-9-2021
क्रमांक-332
विषय- अन्याय 
विधा- लघुकथा
🌺✍ 

 एक शाम मेरी नज़र झुग्गी के बेबस महिला पर पड़ी जिसका पति रमेश उसे मार रहा था। मैं बचाव करने पहुँची, और लोग भी एकत्रित हो गए। मैंने पूछा कि किस कारण मार रहे हो। बेबस महिला रोते हुए बोली,''मैडम जी, मेरी बच्ची को पढ़ने जाने नहीं देता, फीस के पैसे से जुआ खेलता है।'' मैंने डाँट लगाते हुए कहा," थाने में तुम्हारी शिकायत दर्ज करा देती हूँ ।" मैंने दरोगा जी कहकर फोन मिलाया और अपने ही पति से स्पीकर पर बात करा दी। मोबाइल में उसकी तस्वीर ली, ताकि उसके मन में डर बैठ जाए। रमेश ने पैर पकड़ ली और गलती की माफी माँगी। यूँ ही हमदोनों अन्याय के खिलाफ आवाज उठा समाज सेवा करते हैं, लोगों में जागरुकता लाते हैं।

     * अर्चना सिंह 'जया' , गाजियाबाद।
# ब्लाॅग के लिए

रचनाकार :- आ. शिव सन्याल जी 🏆🏅🏆

नमन मंच
कलम बोलती है समूह
विषय - - - अन्याय
विधा - - - लघु कथा
दिनांक - - 8/9/2021

ज्यूँ ही बस स्टॉप आया। सभी सावारियां थक्का मुक्की करती हुई बस में जा चढ़ी। कुछ बच्चों वाली औरते बच्चा सँभाले सीट को तलाश रहीं थी। कुछ बुजुर्ग बेबस सीट की ओर निहार रहे थे। एक महाशय सीट पर रूमाल रख कर बड़े इत्मिनान से  सिगरेट पीने के लिए बस से नीचे उतरे तो एक बुजुर्ग तपाक से सीट पर बैठ गये। खचाखच बस सवारियों से भरी चल पड़ी। रूमाल वाले महाशय सीट पर बुजुर्ग को बैठा देख कर आपा खो बैठे। गाली गलौज कर के बुजुर्ग को खींच कर उठा दिया---"रे तेरे बाप की सीट है पता नहीं मैंने रूमाल रख कर रिज़र्व की हुई थी।" बुजुर्ग कांप रहा था टुकुर टुकुर उस महाशय की ओर देख रहा था।
तभी एक सज्जन उस महाशय से उलझ पड़े।
बड़ा बदतमीज़ है-" देखता नहीं बाप की उम्र का है। शर्म आनी चाहिए, यह अन्याय है कोई रूमाल सीट पर रख कर मालिक थोड़ा बन जाता।अरे- बुजुर्ग आदमी बैठ गया तो कौन सी आफत आ गई। " जबरदस्ती उस महाशय को उठा कर बुजुर्ग को सीट पर बिठा दिया। 
ग्लानी भरा वो महाशय खड़ा खड़ा अगल बगल मुँह छुपाए उस सज्जन को तिरस्कृत निगाहों से देख रहा था।

# ब्लॉग के लिए
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रचना मौलिक स्वरचित है। 
शिव सन्याल
ज्वाली कांगड़ा हि. प्र
नमन मंच कलम बोलती है
क्रमांक - - 335
विषय - - मन बावरा
विधा - - काव्य
दिनांक - - - 15/9/2021

मन बावरा रे लगा के पंख उड़ जाए।
जग की भूल-भुलैया में घुमड़ जाए। 

डाल डाल पर बैठ रहा अपने पंख पसारे। 
दो मन के बीच फंसा मन ही मन को मारे। 
सब कुछ चाहता मुट्ठी में दुनिया के नजारे। 
काम क्रोध लोभ के बस सब को हंकारे। 
पल पल मन का सब्र है टूटता जाए।
मन बावरा रे लगा के पंख उड़ जाए।
जग की भूल-भुलैया में घुमड़ जाए। 

कई आ रहे कई जा रहे जन्म मरण के फंदे। 
कुछ नहीं जग में अपना करे काम क्यों मंदे। 
खाली आया खाली जाएगा छोड़ मंदे धंधे। 
इतना भी तू सीख सका न लानत है रे बंदे। 
किस्मत में जितना लिखा उतना ही खाए।
मन बावरा रे लगा के पंख उड़ जाए।
जग की भूल-भुलैया में घुमड़ जाए। 

झूठी प्रीत लगा कर क्यों मन को लुभाता। 
सच्चा रिश्ता प्यार का यहाँ कौन निभाता। 
लाख पुकार मुसीबत में कोई नहीं है आता। 
एक वो ही साथी जो इस जग का है दाता। 
फिर क्यों नहीं तू उस के भजन गाए।
मन बावरा रे लगा के पंख उड़ जाए।
जग की भूल-भुलैया में घुमड़ जाए।

ब्लॉग के लिए
रचना मौलिक स्वरचित है। 
शिव सन्याल
ज्वाली कांगड़ा हि. प्र

रचनाकार :- आ. गीता लकवाल जी 🏆🏅🏆

नमन -मंच
वार -बुधवार 
तिथि- 8 सितंबर 21 
विषय -अन्याय
 विधा -लघुकथा

"अरे !पागल हो गई हो शालिनी?
दो दिन बाद तुम्हारी शादी है और तुम लगी हो उस रेप केस के दरिंदो को सजा दिलाने।"
"धरना लगा कर बैठी हो। उसको न्याय दिलाने के चक्कर में अपना जीवन क्यों खराब कर रही हो?"
वो तो चली गई। कल को कोई ऊंँच नीच हो गई तुम्हारे साथ तो...

अरे !मांँ बस करो। ऊंँच -नीच के डर से नारी का अस्तित्व ही ख़त्म कर दूंँ तुम्हारी तरह।

फिर शालिनी ने एक लंबी सांस ली और बोली,"मांँ मुझे माफ करना।  छोटा मुँह बड़ी बात कह रही हूँ पर मुझे बताओगी   तुम्हारा क्या वजूद है इस घर मे? शादी तुम्हारी इस शर्त पर हुई की नौकरी नहीं करोगी फिर  ससुराल आकर अपनी इच्छाओं को मारकर पति सास ससुर की सेवा में  तन –मन  सब कुछ लगा दिया। ,तुम ये भी भूल गई तुम्हारा अपना भी कोई अस्तित्व है। "फिर मिला क्या?"पति और उनके घर वालों ने  तुम्हे ही छोड़ दिया।वो भी सिर्फ़ इसलिए क्योंकि तुम उन्हें  बेटा नहीं दे पाई ।

"मैं यूं अन्याय नहीं सह सकती मांँ।"
मैं नारी के अस्तित्व को मिटने नहीं दे सकती मुझेअभी बहुत लड़ना है ।
कहती हुई आंँखो में अनोखा तेज़ लेकर शालिनी चल दी 
अन्याय के खिलाफ लड़ने...

स्वरचित
गीता लकवाल
जयपुर राजस्थान

रचनाकार :- आ. संगीता चमोली जी 🏆🏅🏆

नमन मंच
कलम बोलती है साहित्य समूह
दिनांक 08-09-2021
विषय अन्याय
विद्या लघुकथा

शीतल अपने परिवार की इकलौती लड़के थी उसकी शादी बड़े परिवार में गए जहां चार देवर थे।
और वह 5 भाई से एक बहन की बहन सबसे बड़ी थी बहन की शादी हो गई थी उसके बाद शीतल का पति रमेश की शादी शीतल के साथ हो गए बड़ी मेहनत से घर को सबके साथ उसी से एक झुट होकर रहना चाहती थी लेकिन दूसरी दे वररानी देवर के जाने से परिवार में थोड़ा लड़ाई झगड़ा और बहुत मन मिटाओ बढ़ने लगा। शीतल बहुत सहनशक्ति वाली पढ़ी लिखी और वह परिवार को जोड़ने के लिए सदैव संयम को अत्यधिक देकर भी सबको खुश रखना चाहती थी। शीतल बहुत होशियार थीं।
चारों देवर की शादी हो गई।
घर में और खटपट का वातावरण बन गया।
तीनों देव रानी ने एकजुट बना लिया और शीतल को परेशान करने लगे ।शीतल के साथ बहुत लड़ाई झगड़े होने लगे । बहुत परेशान हो कर शीतल घर छोड़कर के किराए पर जाने के लिए मजबूर हो गयी थी।
अब शीतल मन-ही-मन मन बहुत परेशान होना लगे और दोनों पति-पत्नी गंभीर सोच में पड़ गए आज तक जो कमाया वह सब इन इनके शादी ब्याह में लगाया अब जाएं तो जाएं कहां बिना पैसों का कहां जा सकते हैं।
क्या जी परेशान हो जाने से कारण शीतल और उसके पति ने अपना समान उठाया और दोनों चले गए कुछ समय वह धर्मशाला में रहे।
कुछ दिन बाद थोड़े दिन बाद वह दोनों अपने लिए नौकरी ढूंढने के लिए इधर उधर जाने लगे शीतल के पति  को अच्छी नौकरी मिल गई और कमरा भी किराए पर ले लिया।
दोनों पति-पत्नी कमाना लगे और एक एक पाई बचाकर  कुछ सालों बाद अपना घर ले लिया आखिर शीतल के साथ इतना अन्याय हुआ था सबको पढ़ाया लिखा या सब की शादी कराई घर से बाहर चली जाइए ।
मानव को अपना आपा नहीं खोना चाहिए। भगवान सबके साथ रहता  है ।और वह सत्यवादी मानव का साथ देता है शीतल रमेश का भगवान की कृपा से न उसकी अपनी गृहस्थी जम गई। और वह हंसी खुशी दोनों अपने घर में रहने लगे।

ब्लॉक के लिए अनुमति जी

स्वरचित मौलिक
संगीता चमोली देहरादून उत्तराखंड


नमन मंच
कलम बोलती है साहित्य समूह
विषय प्रेम की गागर 
विषय पद्य
दिनांक-17-9-2021

भीम की गागर जिसके मन में होती।
वह मन ईश्वर समान पवित्र होता।
प्रेम सुधा ही जीवन रक्षक होता।
प्रेम से रखता सुखी जीवन भर।

प्रेम की गागर ममतामई होती।
वह सदा क्षमा दया करती।
जीवन में आनंद सदा लेती।
प्रेम से अपना जीवन सुखी बनाओ।

प्रेम की गागर जिसने भर दिया
अपना जीवन सफल कर दिया।
प्रेम की गागर सदा भरे रहे।
खुशहाली जीवन में मिलती रहे।

प्रेम के गागर भरना सीखो सिखाओ।
मनमंदिर को सफल बनाओ।
इसके भीतर प्रभु बसे हैं।
इस प्रभु को स्वच्छ सुंदर बनाओ।

प्रेम परोपकार करते जाओ।
जीवन में रंगीन सपने सजाओ।
मानवता का धर्म निभाओ।
मनुष्य जन्म का गौरव बन जाओ।

प्रेम अमर जीवन में सदा होता।
प्रेम से एक दूजे को याद करते जाओ।
प्रेम बिना जीवन सूना होता।
प्रेम बढ़ाओ वह सुखी हो जाओ।

ब्लॉक प्रस्तुति हेतु सहमति

स्वरचित मौलिक तथा अप्रकाशित
संगीता चमोली देहरादून उत्तराखंड



नमन मंच
कलम बोलती है साहित्य समूह
दिनांक-23-9-2021
विषय श्राद्ध पक्ष
विद्या स्वैच्छिक

स्वागत सब पितृ पक्ष में करते हैं।
उन प्यार का जिन्होंने जन्म दिया है।
दिये सद संस्कार सत बुद्धि सबको।
पाल पोस कर कर काबिल बनाया।

स्वयं पितृरो में शामिल हो गए।
उन पितृ चरणों को बारंबार नमन।
वही पितृ हमेशा रक्षा हम सब की करते।
दया दृष्टि जीवन भर बनाएं रखते।

शाल में एक बार सब पितृपक्ष में।
श्राद्ध पक्ष में तर्पण देते हैं।
अन्न धन भोजन दान करते हैं।
उनके नाम से भोज वितरित करते हैं।

श्राद्ध पक्ष की पूर्णिमा बात में आता।।
पितृ देवो को घर घर तर्पण मिलता।
हर पुत्र पौत्र और हर परिवार से मिलता।
आशीष पाते जो सत्कार जो करता।।

विधि संयम नियम से पितृ काज।
परिवार में सब मिल-जुल कर श्रद्धा से करते।
जो पितृ देवो परिवार को छोड़कर चले गए।
श्रद्धा से उनको यज्ञ तर्पण देते रहते।

स्नान ध्यान करके पिंडदान करते
अपने पित्रों के नाम गोत्र को स्मरण करते।
विप्र कन्याओं को दान वस्त्र दान देते।
 दक्षिणा देकर चरण स्पर्श आशीष लेते।
श्राद्ध भरते जीवन में संतुष्टि औ पूर्ण विश्वास।
पितृ देवभी रहते स्वा परिवार से आस।

ब्लॉक हेतु सहमति आदरणीय जी

स्वरचित मौलिक तथा अप्रकाशित
संगीता चमोली देहरादून उत्तराखंड

रचनाकार :- आ. अल्का मीणा जी 🏆🏅🏆

नमन मंच कलम बोलती है 🙏🏻
विषय-वो लम्हे
विधा-स्वैच्छिक
दिनांक-7/09/21
दिवस-मंगलवार

सादर अभिवादन 🙏🏻

जी लो हर पल को 
इससे पहले कि ये निकल जाएं,
मुट्ठी में पकड़ी रेत की तरह
तेज़ी से फिसल जाएं,
ये पल...ये लम्हे
दोबारा नहीं आने वाले,
लौटकर गुज़रे ज़माने नहीं आने वाले।

बच्चे थे तो मौज थी
हरदम संग दोस्तों की फौज थी,
बड़े हुए तो हाथ छूट गए
संगी साथियों के साथ भी छूट गए।

वो भी एक दौर था
यह भी एक दौर है,
चारों और खामोशी 
मगर दिल में कितना शोर है।

बचपन में सब अपने थे
छोटे छोटे जिनके सपने थे,
ना कहीं के राजा थे
ना ही कोई राजपाट था,
लेकिन अपना रुतबा
रजवाड़ों से ज़रा भी ना घाट था।

आज धन दौलत ऐशो आराम
सब कुछ पास है,
फिर भी बचपन के उन लम्हों की हमें
आज भी तलाश है,
खुशकिस्मत होते हैं वो
जिन्हें फिर मिल जाएं,
वो साथी...वो लम्हे जाने वाले....

इसलिए जी लो हर पल को
ये पल... ये लम्हे
दोबारा नहीं आने वाले...
लौटकर गुज़रे ज़माने नहीं आने वाले...💕

अल्का मीणा
नई दिल्ली
स्वरचित एवं मौलिक रचना

रचनाकार :- आ. सुधा चतुर्वेदी जी 🏆🏅🏆


रचना नंबर -1
*************
नमन 
कलम बोलती है समूह 
विषय ..बेटी की अवहेलना 
लघु कथा 
08-09-21.बुधवार 

आज में एक ऐसी सशक्त सुदृढ़ विचार वाली नारी के बारे में बताना चाहती हूँ जो जीवन के संघर्षों से विचलित न होकर उनके समाधान का रास्ता सोचती है , केवल सपने ही ना देखकर उसे साकार करने की भी भरसक कोशिश करती है .....क्योकि उसके साथ जो अन्याय किया गय़ा वो असहनीय व निंदनीय था ।

 कल्पना अपने नये घऱ को देखकर फूली नहीं समा रही थी कभी ऊपर, कभी नीचे , कभी छत्त पर कभी दरवाजे पर दस्तक देती जा रही थी ..मजदूरों को सलाह..... ये काम ऐसे, ये पुताई ऐसे , ऐसी लाईट , ऐसा बाथरूम , ऐसी रसोई कुछ न कुछ बोलती जा रही थी ।
" अब चुप भी हो जाओ ये सब मिस्त्री कारीगर सब होश्यार हैं, थोड़ा आराम करलो, सुबह से जागती हो अकेली मेहनत कर रही हो बीमार हो गयीं तो क्या होगा ? " एक ही सांस में पतिदेव बोल गये । कल्पना समझ ही नहीं पायी कि ये नाराज हैं या मेरी चिंता कर रहे हैं ! ! ! खैर वो एकबार बैठ गयी पर शांति नहीं मिली उसे । उसका तो दिमाग का ब्रह्मांड ही घूम गया ......कैसे हैं ये ? कितना भोलापन है ? कितनी सादगी व सरलता से इन्होने मुझे बैठा दिया पर मेरी धड़कन नहीं रूक रही लग रहा है़ जैसे रक्तचाप बढ़ता ही जा रहा हो ,
हुआ यों कि कल्पना के मात्र तीन बेटियां ही थीं , भरा पूरा ससुराल मायका था लेकिन एक कांटा हमेशा ही सब चुभा देते थे ......लड़का ...बहनों के भाई तो है ही नहीं तो घऱ की क्या जरूरत है ? लड़की ससुराल चली जायेंगी और इन दोनो में से जो भी एक बचेगा उसके लिए हम परिवारीजन हैं तो ...
ये सोचकर कल्पना और उसके पति को घऱ से वेदखल कर दिया गया अब कल्पना को रातों की नीद व चैन नहीं था वह अपना एक मकान बनाना चाहती थी जिसे वो अपना घऱ कह सके जिसमे वो अपना निजी ताला लगा सके , सजा सके, संवार सके और अपने अतिथियों को जिन्हें वो बुलाने को तरसती थी बुला सके और आज 20 सालों तक इधर उधर भटकने के उपरांत आज उसका अपना ....सिर्फ अपना मकान बन रहा है ...जिसमें उसके पति के साथ उन्हीं बेटियों की भागीदारी है जिनके कारण उसे बेदखल कर दिया गया था । 
इतने सालों में आज उसे वो मेहनत का फल मिल रहा था जिसका वो स्वप्न में भी स्वप्न देखती थी .....आज उसकी वो उम्मीद पूरी होने जा रही थी जिसकी परिवारीजनों को कभी उम्मीद ना थी ....और ये कहते हैँ कि बैठ जाओ ! ! ! नहीं मैं नहीँ बैठूंगी ! और एक झटके से कल्पना उठी ...मुस्कुराइ हँसी और गरमागर्म चाय बनाकर पीकर फिर वही करने लगी जिस काम क़ो डांट खायी थी ।

(ब्लाग के लिये अनुमति )

स्वरचित।सुधा चतुर्वेदी मधुर 
               मुंबई

रचना नंबर - 2
*************


नमन मंच 
कलम बोलती है 
विषय ...श्राद्ध पक्ष 
22-09-21

आश्विन माह के कृष्ण पक्ष को पितृ पक्ष कहते हैं , 
पितृ पक्ष के स्वागत के ये  सोलह दिन  होते हैं। 
अपनी तिथि पर हर पूर्वज अपने घर को आते हैं , 
स्वादिष्ट भोजन वंशज उनको ब्राह्मण रूप में करवाते हैं। 

सर्वप्रथम हम अपने इष्ट का सब भोजन भोग लगाते हैं, 
उसके बाद संकल्प बोलें और गऊ का ग्रास सजाते हैं । 
दूसरा ग्रास कौए का होता उसको खीर खिलाते हैं , 
कहते हैं उनके खाने से पूर्वज खुश हों जाते हैं । 

पीपल बरगद वृक्ष हमारे श्रद्धा लाभ के होते हैं , 
इनके उगने के बीज कौए की वींट में होते हैं । 
इसीलिए कौओं की संख्या कभी नहीं घटनी चाहिये, 
इन दिनों मादा अंडे देती उनको पौष्टिक भोजन चाहिये।  

जल से हैं तर्पण करते वो जल पूर्वज को मिलता है, 
वंश हमारी याद है करता उनको अनुभव ये होता है। 
फिर ब्राह्मण को उनके नाम पर पूरा भोजन करवाते हैं,  
वस्त्र दक्षिणा देकर के हम उनको विदा कराते हैं । 

इसी बहाने हर पूर्वज की यादें ही हम करते हैं , 
आने वाली पीढ़ी कों उनका इतिहास बताते हैं । 
श्राद्ध नाम श्रद्धा का है अमावस्या को विदा कराते हैं , 
दरवाजे पर दीप जला कर नतमस्तक हो जाते हैं । 

आप मेरी रचना ब्लॉग पर ले सकती हो मौलिक और अप्रकाशित है 👏

स्वरचित    .सुधा चतुर्वेदी मधुर 
                     मुंबई

मंगलवार, 7 सितंबर 2021

रचनाकार :- आ. रेखा मोहन जी 🏆🏅🏆

दैनिक_विषय_क्रमांक_331
               
 जय माँ शारदे  
*****************            
#विषय..वो लम्हे
जो लम्हें जीवन से निकल जाते
वो वापिस मुद्दत में कब आते है.
कितना चाहों ज़ोर लगाओ पर
वो सब अफसाने से तब पाते है.
जो जरूरत और चाहत होती है
उसकी हमेशा मन में लव लाते है.
हम उसकी तमन्ना में खोये रहते
वो हमको उम्मीद जगा अब आते.
इन लम्हों की चाहत में बन सोदाई
हमने सदा ही मुँह की ही  खाई
दुनिया इनके बिना अधूरी जब नाते है.
स्वरचित –रेखा मोहन पंजाब

कहानी :- माँ कभी सौतेली नहीं होती

माँ कभी सौतेली नहीं होती

          पायल और विजय अपनी खुशाल जिंदगी जी रहे थे। उनका एक बेटा भी था । जिसका नाम रोनक था । वो आठ साल का था । बहुत प्यारा बच्चा है रोनक..... विजय को काम की वजह से परिवार के साथ समय बिताने को नहीं मिलता था। परंतु पायल को अपने पति से कोई शिकायत नहीं थी क्युकी वो जानती थी कि विजय कितनी मेहनत करता है, और वो ये सब अपने परिवार के लिए ही कर रहा है, पायल बहुत समझदार थी वो विजय और रोनक का बहुत ध्यान रखती थी।वो घर और बाहर का सब काम खुद ही संभाल लेती थी।बिजली के बिल से लेकर रोनक के स्कूल की फीस तक सारा काम पायल ही संभालती थी। इस लिए विजय भी निश्चिंत था।
परंतु होनी को कौन टाल सकता है,........ एक दिन जब पायल बैंक मे पैसे जमा करा कर वपास लौट रही थी तो अचानक एक ट्रक से टकरा जाती है, और उसका एक्सिडेंट हो जाता है,पुलिस उस ट्रकवाले को पकड़ लेती है, कुछ लोग पायल को अस्पताल ले जाते हैं, परंतु खून ज्यादा बह जाने से डॉक्टर उसे बचा नहीं पाते है, अब विजय पर तो जैसे दुखों का पहाड़ पड़ गया हो वो अपने आपको संभाल ही नहीं पाता है, उसकी हालत पागल जैसी हो जाती है, उसका दिल ये मानने को तैयार नहीं होता है कि पायल उसे छोड़ने कर चली गई। रोनक जब स्कूल से लौटता है, तो .. माँ.. माँ.. कहके... पुकारता है पर अब क्या...... अब माँ तो उसे छोड़ कर चली गई थी । उस मासूम की आँखे माँ को ही ढूंढ रही थी, परंतु उसे माँ कहीं नजर नहीं आ रही थी,घर में इतनी भीड़ देख रोनक घबरा जाता हैं......अपने पापा को यूँ रोते देख... उनसे पूछता है...... माँ.. कहा है?.... माँ को क्या हुआ.... बोलो पापा माँ कहाँ हैं.... पर विजय के पास उस मासूम के सावालों का कोई जवाब नहीं होता है
तभी रोनक की नजर आगन में सफेद चादर में लिपटी उसके माँ की लाश पर पड़ती है, रोनक तुरंत पायल के शरीर से लिपट जाता है.... और जोर जोर से रोने लगता है... "माँ.. माँ.. उठो ना.. माँ.. उठो... अब मै कभी शरारत नहीं करूँगा... खाना भी सही टाइम पर खउगा.... तुम उठो ना........ रोनक की ये हालत विजय से देखी नहीं जाती वो रोनक को अपने सीने से लगा लेता है..... और दोनों जोर जोर से रोने लगते हैं"
शामिल हुए कुछ रिश्तेदारों में से कुछ लोगों ने दोनों बाप - बेटे को सांत्वना दी...... और विजय को समझाया कि अब पायल के अंतिम संस्कार का समय हो गया है, विजय ने अपने आपको सँभाला और पायल को अंतिम विदाई दी.... अंतिम विदाई देते समय.... विजय के आखों के सामने पायल की एक एक बात याद आ रही थी... उसका वो चेरह बार बार आखों के सामने आ रहा था
अंतिम - संस्कार करके जब घर लौटा तो मानो घर खाने को दौड़ रहा था। बार - बार पायल की यादे सता रही थी। तभी विजय की एक दूर की रिश्तेदार ने विजय को समझाया कि वो अपनी भावनाओ को काबू में करे क्योकि अब उस पर रोनक की जिम्मेदारी भी आ गई है विजय उनकी बात को समझ जाता है और रोनक की देखभाल में लग जाता है ये बड़ा कठिन था उसके लिए.... क्योकि अब उसे रोनक को माँ और बाप दोनों का प्यार देना था।
रोनक को किसी तरह संभालता है, उसे खिलाता - पिलाता, नहलाता और स्कूल भेजता उसके सारे काम करता .. इस तरह एक महिना गुजर गया। अब तो विजय के ऑफिस से भी फोन आने लगते हैं, विजय की समझ नहीं आता है कि आखिर रोनक की देखभाल कौन करेगा।
तभी विजय के दूर की रिश्तेदार का फोन आता है, और वो विजय को सपना के बारे में बताती है:-
"सपना बहुत ही सीधी - साधी सामान्य परिवार से है, शादी के तीन साल बाद भी जब उसे कोई संतान नहीं हुई तो उसके पति ने अपनी माँ के कहने पर उसे तलाक दे दिया। वो अब अपने भाई - भाभी के साथ रहती है, पर वहा भी उसे अपनी भाभी के ताने सुनने पड़ते हैं, उसे भी एक सहारे की जरूरत है, और विजय को भी रोनक की देखभाल के लिए ऐसी ही किसी लड़की की तलाश थी। "
विजय सपना से मिलता है और अपने और रोनक के बारे में बताता है, विजय कहता है कि.... वो पायल को कभी नहीं भूल सकता.... और ना ही उसकी जगह किसी और को दे सकता है.... वो ये शादी सिर्फ अपने बेटे रोनक के लिए कर रहा है.......... सपना भी बच्चे के प्यार को तरस गई थी। वो भी चाहती थी कि उसे कोई मां कहकर पुकारने वाला कोई हो।
विजय, सपना से शादी कर उसे अपने घर ले आता है, और उसे रोनक से मिलाता है, पर रोनक सपना को देख कर खुश नहीं होता है, और भी उदास हो जाता है, विजय कहता है...... रोनक,.... ये तुम्हारी माँ हैं,
रोनक कहता है....... ये मेरी माँ नहीं, आपकी पत्नी होगी..... ये तो मेरी सोतेंली माँ हैं... ये बहुत बुरी है.... मुझे नहीं चाहिए ऐसी माँ...... रोनक इतना कह कर गुस्सा हो कर भाग जाता है...... सपना रोनक की बात सुनकर बहुत दुखी होती है.... उसकी आखों में आंसू आ जाते हैं
विजय कहता है, रोनक अभी छोटा है, उसे अपनी माँ को भुलाने में वक़्त लगेगा। मै बस इतना चाहता हूँ, कि तुम उसकी बात का बुरा नहीं मानोगी। और सब भुलाकर एक अच्छी माँ की तरहा रोनक की देखभाल करोगी।
सपना विजय की बात समझ गई थी। उसने तय कर लिया था कि वो रोनक के दिल में अपने लिए जगह बना कर रहेगी। सपना ने पायल की अलमारी खोली उसमें उसे पायल की डायरी मिली।
पायल को डायरी लिखने का शौक था। वो अपनी पूरी दिनचर्या अपनी डायरी में लिखा करती थी। यहां तक कि अपनी पसंद नापसंद और विजय, रोनक की भी पसंद - नापसंद के बारे में भी सब लिखा करती थी। सपना ने दूसरे दिन सुबह जल्दी उठ कर नहा - धोकर पायल की लाल रंग की कांजीवरम साड़ी पहनी जो की रोनक और विजय दोनों को बहुत पसंद थी.... पायल जब जब वो साड़ी पहनती विजय उसकी तारीफ किए बिना नहीं रहता रोनक को भी माँ की ये साड़ी बहुत पसंद थी, फिर उसने पायल का फ़ेवरेट रोज की भीनी भीनी महक वाला पर्फ्यूम भी लगाया
उसके बाद वो किचन में जाकर जल्दी से विजय का मन पसंद गोभी के पराठे और रोनक का मन पसंद चीज़ सैंडविच नाश्ते में बनाती हैं।
उसके बाद वो रोनक को जगा ने चली जाती है,रोनक को अपनी माँ पायल के अपने आसपास होने का अनुभव होता हैं और वह आंखो को मलता हुआ उठ जाता है, उठते ही उसकी नजर सपना पर पड़ती हैं, वो रोनक का बैग जमा रही थी उसका मुंह दूसरी तरफ था, पीछे से वो बिल्कुल पायल की तरहा दिख रही थी... इसलिए रोनक उसे अपनी माँ पायल समझ कर .. माँ .. माँ . कहता हुआ सपना से लिपत जाता है, सपना को भी रोनक का उसे यूँ लिपटना अच्छा लगता है जैसे ही वो उसे अपने गले लगने लगती हैं, तो रोनक को पता चल जाता है कि वो उसकी माँ पायल नहीं सपना हैं... तो वो फिर से उदास हो जाता हैं और सपना को गुस्से में कहता हैं.......चली जाए आप यहाँ से... आपने मेरी माँ की साड़ी क्यू पहनी हैं, आप मेरी माँ की किसी भी चीज को हाथ नहीं लगाएगी और रोनक जोर जोर से रोने लगता है, तभी आवाज सुनकर विजय भी उठ जाता है और किसी तरह रोनक को चुप कराता है, सपना भी रोनक को सॉरी बोलती है... और वादा करती है कि आज के बाद वो कभी भी पायल की किसी भी चीज को नहीं छूएगी इतना कह कर वो तुरंत कपड़े बदल लेती है और रोनक और विजय के लिए नाश्ता लगाती है ।
इस तरह कई दिन बीत गए ।सपना रोनक और विजय का पूरा पूरा खयाल रखती ।अब तो दोनों को जैसे सपना की आदत हो गई थीं और होगी भी क्यू नही वो उनके कहने से पहले ही सभी काम कर लेती थी ।
एक दिन अचानक सपना को बहुत तेज बुखार आ जाता है, वो अपने पलग से भी नहीं उठ पा रही थी इधर रोनक के स्कूल जाने का वक़्त भी हो गया था पर उसका पूरा बदन बुखार से जल रहा था फिर भी वो किसी तरह उठ कर रोनक के लिए टिफिन बनाती है,और विजय को देती है,टिफिन बनाते ही उसे चक्कर आ जाता है और वो गिर जाती है विजय और रोनक तुरंत सपना की तरफ दौड़ते हैं ,विजय अपने फ़ैमिली डॉक्टर को बुलाता है ।
सपना का चेकअप कर के दवाई लिख देता है, विजय के पूछने पर डॉक्टर कहता है कि बुखार की वजह से कमजोर आगई है इसलिए चक्कर आ गया और दवा लिखदी है, वो दे देना और ध्यान रहे कम से कम दो - चार दिन पूरा बेड रेस्ट कोई भी काम नहीं कराना वरना उस की हालत और भी बिगड़ सकती हैं।
रोनक विजय और डॉक्टर की बातें सुन लेता है, और अपना बैग रख कर सपना के पास जाता है और सपना को पायल के अलमारी की चाबी दे कर कहता है... आप जल्दी से ठीक हो जाये मैं कभी भी आप पर गुस्सा नहीं करूँगा ..... मैं एक माँ को खो चुका हूँ... अब इस माँ को नहीं खोना चाहता ।रोनक की बात सुनकर सपना की आँखो में आँसू आ जाते हैं और वो रोनक को अपने गले से लगा लेती हैं।
इस तरह रोनक को फिर से मां मिल जाती है और सपना को भी रोनक के रुप में बेटा मिल जाता है ।
दोस्तो अगर दिल से निभाए तो कोई भी रिश्ता सौतेला नहीं होता है।

उमा वैष्णव 

मौलिक और स्वरचित



रचनाकार :-आ. उषा मिश्रा जी 🏆🏅🏆

जय मां शारदे
कलम बोलती हैं साहित्यिक समूह
नमन मंच
दैनिक विषय क्रमांक- 331
विषय- वो लम्हे
विधा- स्वैच्छिक
दिनांक- 6,09,2021
दिन- सोमवार
आयोजन संचालक- आदरणीय उमा वैष्णवी जी। 🔥

        🔥 जिंदगी के अमूल्य लम्हे 🔥

वो लम्हे ना भूली मैं आज तक, जब अचानक पता चला मेरी पढ़ाई छुड़ाकर मेरी शादी का कार्यक्रम शुरू होने वाला है और बड़े जोर शोर से मेरे लिए वर तलाश होने लगा। कई लड़के देखे गए कई छोड़े गए। और मुझसे पूछे बगैर घर में मेरी शादी की तरह तरह की बातें कुछ मेरे सामने होती कुछ पीठ पीछे। मुझे देखते ही सब चुप हो जाते हैं। मैं पूछती की आप लोग चुप क्यों हो गए क्या बात कर रहे थे तो लोग कहते तुम्हें क्या मतलब। तुम घर गृहस्थी के काम में मन लगाओ ज्यादा लोगों की बातें सुनने में रुचि ना लो। फिर एकाएक मेरी ताऊ जी की बहू मेरी भाभी लगी उन्होंने मुझे बताया कि गुरुवार को लड़के वाले तुम्हें देखने आ रहे हैं। मैं सुनकर सन्न रह गई। फिर ईश्वर से मनाती रही कि हे प्रभु कुछ ऐसा करना कि लड़के वाले मुझे देखकर नापसंद कर दे। और मैं गुरुवार का इंतजार करने लगी और दुख से भरी हुई आंखों में आंसू लिए किसी से कुछ कह भी नहीं पा रही थी। मुझे सबके सामने उपस्थित होने की मां ने आज्ञा दी। और भाभी ने बताया कि लड़के का नाम शुभेंद्र है। परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी हैं। मैं सब सुनती रही और कठपुतली की तरह सबके सामने उपस्थित हुई। मेरी नजरें भी झुकी हुई थी और शुभेंद्र की नजरें भी झुकी हुई थी। मन ही मन हम एक दूसरे के प्रति अनभिज्ञता में सोच रहे थे कैसे मना किया जाए। फिर भाभी ने कहा कि तुम लोग बात कर लो और वो लोग कमरे से बाहर निकल गए। वो लम्हा मुझे अब तक याद है कि शुभेंद्र और और मैं एक दूसरे को देखकर चकित थे क्योंकि शुभेंद्र और मैं प्राइमरी स्कूल में साथ साथ पढ़ें थे। हम लोग बहुत खुश हुए और शुभेंद्र ने कहा कि समय नहीं है मैं अभी शादी करना नहीं चाहता हूं मैं आगे की पढ़ाई करना चाहता हूं और शायद तुम्हारी भी यही इच्छा होगी। हम दोनों ने एक दूसरे को नापसंद करने की शपथ ली और अपने -अपने घर वालों से अपनी नापसंद बता दी। इस तरह हमारी शादी कैंसिल हुई और हमें आगे पढ़ने की अनुमति मिल गई। उस लम्हे की खुशी का वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। 🔥

स्वरचित मौलिक
डॉ उषा मिश्रा
कानपुर उत्तर प्रदेश। 🔥



रचनाकार :- आ. अनुराधा पांडे जी 🏆🏅🏆

नमन मंच,
#कलम बोलती है साहित्य संगम संस्थान
दैनिक विषय-331
विषय -वो लम्हे
दिन -सोमवार 
दिनांक -6 सितंबर 2021


खता तो उन चंद लम्हों की थी,
सदियों ने हमेशा ही सजा पाई थी,
 जलजले से उठ रहे थे सीने में,
उनसे हुई कितनी रुसवाई थी||


भाग्य को भाग्य का साथ न मिला,
हाथों को सौभाग्य का हाथ ना मिला, कितना  भी टूट गया ,मन में लेकिन
सब कुछ निभाने की प्रतिज्ञा खाई थी||



 स्वरचित
 अनुराधा पांडे 
रीवा (मध्य प्रदेश)




रचनाकार :- आ. कैलाश चंद्र साहू जी 🏆🏅🏆

नमन मंच
कलम बोलती है
विषय वो लम्हे
विधा गजल

ख्वाब  में  आकर  वो  छोड़  जाते  हैं
दर्दे  गम  में  तासीर  है  हमे मुस्कुराने की।।

बहुत  सताया  तुम ने मुझे  मेरे  हमनवा
 नहीं कोई हसरत बाकी तिरे पास आने की।।

है जरूरत  हमे  सीने  से घाव  हटाने  की
अब  तो  आदत  हो  गई हमे हार जाने की।।

यूं पल  भर  में  लूट  लेते  हैं  प्यार  वाले
भला  फिर   क्यों   कोशिश  दूर  जाने  की।।

जो हासिल करना चाहा हमे वो मिला
हमारी  कोशिश  है  नई  दुनिया  बसाने की।।

फलक में चांद सितारे जमी पर दर्द भुलाने
हर  दर्द की  दवा है  यार  महज  मिटाने की।।

नफरत नहीं दिखाती कभी अपना हुनर यूं
आनंद हम कोशिश करेंगे नफरत भगाने की।।

स्वरचित मौलिक अप्रकाशित

कैलाश चंद साहू
बूंदी राजस्थान

रचनाकार :-आ. गोविंद प्रसाद गौतम जी 🏆🏅🏆

नमन मंच  कलम बोलती है
विषय  ओ लम्हें
विधा  पद्य
विषय  क्रमांक  331
6 सितम्बर 2021,सोमवार

वे स्मरण भूल न सकते
जो जीया बचपन अपना।
श्याही से सने  हाथ रहते
वह लम्हें लगते हैं सपना।

सूत कातते थे तकली से
तख्ती उपर सुलेख लिखते।
अंत्याक्षरी में खड़े होकर के
सोरठा पद्य ,चौपाई बोलते।

विद्यालय की घण्टी बजती
अति जोर से हम चिल्लाते।
छुट्टी होती घर पर जाते हम
बड़े मजे से , नदी में नहाते।

खेत की मेड पर भुट्टे सेकते
नींबू नमक डालकर के खाते।
संगी साथी साथ हम बैठकर
करते मिलकर , हँसकर बातें।

वह बचपन के अतुलित लम्हें
अविस्मरणीय, सुखद पल थे।
मिलके  खाना  पीना  खेलना
करते मिलकर, बैठ नकल थे।

स्वरचित,मौलिक
गोविंद प्रसाद गौतम 
कोटा,राजस्थान।

रचनाकार :- आ. डॉ. राम कुमार झा जी 🏆🏅🏆

💐🙏#कलम✍बोलती है साहित्य समूह🙏💐

#दिनांकः ०६-०९-२०२१
#दिवस: सोमवार
#विधाः कविता
#विषय:  वो लम्हें 

एक दौड़ था हमारा , कुछ और हम थे,  

था दीवाना ज़माना,  चित्तचोर हम थे, 

शराफ़त ए गुलिस्तां,कशिश दिल्लगी थी,

न जाने मुहब्बत, फिर भी दिलकशी थी, 

लुटाये चमन इश्क, हमने खूशबू बिखेरी ,

आयीं,न जाने कहाँ से वो दिलकश लुटेरी,

थी गज़ब की नज़ाकत, हूश्नी खूबसूरत, 

खुशनुमा जिंदगीऔर की ख़ुदा की इबादत, 

 बन उन्मुक्त पंक्षी उड़े ख़ुले आसमां में , 

हमने लुफ्तें उठायी,प्यार से सजी महफ़िलें थीं, 

नाफ़िक्र चले थे उस रूमानी अनबुझ सी राहें, 

अनज़ान अनाड़ी जवां हम इश्क पे फ़िदा थे,  

पर, हुईं सारी बिताई खुशी दफ़न वक्त के साथ, 

लुटा आशियाना ,बिखरते वे हरदिली अफ़साने, 

जिंदगी के सफ़र में बदलती रिश्तों की लकीरें, 

बस यादें हैं महफ़ूज़ ओ सुनहरी नज़ीरें ईमारत, 

काश,ओ लौट आता मस्ती दिवस ख़ूबसूरत,

कसीदें बनाते ओ गढ़ते  मंजिल ए जवां दिल , 

अफ़सोस,दहलीज़ खड़े हम अनचाहत वयस पे ,  

चिर इश्की इबादत  हो वक्त, तुझको मुबारक । 

कवि✍डा. राम कुमार झा "निकुंज"
रचनाः मौलिक(स्वरचित) 
नई दिल्ली

रचनाकार :- आ. अनुराधा प्रियदर्शिनी जी 🏆🏅🏆

नमन मंच 🌹🙏🌹
कलम बोलती है़ साहित्य समूह
विषय क्रमांक:- 331
विषय :-वो लम्हे
विधा:- कविता
दिनाँक:-०६/०९/२०२१
दिन:- सोमवार

वो लम्हे जिन्दगी के 
जिसमें सपने हजार पलते थे
आसमां में उड़ान भरने की चाहत
और कभी सागर की गहराई में पहुंचना
वो लम्हे अक्सर याद आते हैं।

कितनी शांति और सुकुन था
जब हम छोटे हुआ करते थे
ज़िन्दगी की भागदौड़ में जाने कहां
खो गये हैं वो खुबसूरत से लम्हे
वो लम्हे अक्सर ही याद आते हैं


जाने कहां गये वो लम्हे
जिसमें था बस प्यार और अपनापन
अब तो छोटे बच्चों का भी बचपना खोया
वो लम्हे अक्सर ही याद आते हैं।

वो लम्हे याद ज़िन्दगी के
जिसमें रिश्तों की गर्माहट महसूस होती थी
प्यार और अपनापन रिश्तों में झलकता था
बिन बोले अपनों की बातें समझ आ जाती थी
वो लम्हे अक्सर ही याद आते हैं।


स्वरचित एवं मौलिक रचना

    अनुराधा प्रियदर्शिनी
  प्रयागराज उत्तर प्रदेश

रचनाकार :-आ. अनिल मोदी जी 🏆🏅🏆

कलम बोलती है साहित्य मंच
क्रमांक ३३१
विषय वो लम्हे
विधा संस्मरण

याद आते हैं वह लम्हे, पिता की अकाल मृत्यु, कुछ ही समय बाद मां की भी मृत्यु। तीन भाई एक बहन, भरा पूरा परिवार था।
 ना जाने किसकी नजर लगी, हम भाई बहनों के सर से मां बाप का साया उठ गया।
 हम लोगों की पढ़ाई क्रमशः दसवीं आठवीं छठी और तीसरी जो सबसे छोटी बहन थी।
क्या सोचा था? क्या हो गया? 
काश! हम लोग माउंट आबू ना जाते, नौका विहार ना करते।
 मां बाप ना बिछड़ते।
 विधि को कुछ और ही मंजूर था।
  रिश्तेदारों संग सारी रस्में अदा हुई, मगर आगे क्या करें?
 जमाबंदी की चिंता, बैंक में पैसा बिना दस्तखत निकासी ना हो सके। उलझन में फंस गए।
मगर हिम्मत ना हारी।
भाइयों को संभालना, बहन को संभालना, चुनौती भरा कदम था।
 जैसे तैसे दस्तावेज तैयार करवाएं, कुछ कमीशन देने के बाद।
समस्या बहन की परवरिश की थी।
किसके भरोसे छोड़ें? आखिर रास्ता मिल गया कॉलोनी में हमारा फ्लैट था।
 बड़ा बेटा होने के नाते प्राइवेट परीक्षा देकर घर में पढ़ाई करता, धंधा भी करता।
 धीरे धीरे कॉलोनी वालों का साथ मिला, धंधा चमक गया। पढ़ाई छूट गई, समय अंतराल बाद छोटी बहन क शादी हुई।
 धूमधाम से विदा किया। पिता भाई माँ तीनों का फर्ज निभाया, सुकून मिला। वह लम्हे, वह लम्हे भुलाए ना भूले।
अनिल मोदी,  चेन्नई




कलम बोलती है साहित्य मंच
तिथि १७ - ०९ - २०२१
विषय प्रेम की गागर
विधा
भरें प्रेम की गागर ह्रदय में,
हर जीवन से प्यार हो।
छोटा हो या बड़ा हो,
 ऊंच-नीच का ना भेद हो।

सब को जीने का अधिकार। 
ना होवे वैमनस्य और तकरार।
जियो और जीने दो का है संदेशा‌‌।
भगवान महावीर पथ है प्यारा।

सुलभ मार्ग अहिंसा का है यार।
क्षमा जीवन में आत्मसात करले यार।
मानव जीवन ना मिले बार-बार।
निस्वार्थ सेवा में हीरा सदा चमकता है यार।
अनिल मोदी, चेन्नई३
   (   ब्लॉग   )

रचनाकार :-आ. तरुण रस्तोगी कलमकार जी 🏆🏅🏆

🙏नमन मंच 🙏
#कलम_बोलती_है_
साहित्य_समूह 
#आयोजन संख्या ३३१
#विषय वो लम्हे
#विधा स्वैच्छिक
#दिनांक ०६/०९/२१
#दिन मंगलवार

आज के इस दौर में मुश्किल है समझ पाना।
कौन अपना है यहांँ ओर कौन बेगाना।
आजकल  बहुत बुरा वक्त चल रहा।
कोरोऩा बीमारी का नाम सारे रिश्ते निगल रहा।
जान पहचान व खून का रिश्ता भी,
बीमारी का नाम सुनते ही कहीं गुम हो जाता।
तब बेगाने लोगों का हमारे जीवन में प्रवेश हो जाता।
यहां सारे अपनो ने साथ छोड़ दिया।
तब बैगानो ने इक रिश्ता जोड़ लिया।
तब वो खूबसूरत लम्हें मैंने कैमरे में कैद करके सहेजकर रख लिए।
जब कभी मन उदास होता है।
उन लम्हों को देखते ही
मन खुश हो लेता है।

तरुण रस्तोगी कलमकार
मेरठ स्वरचित
ब्लाग पर डाल सकते है।
मेरी स्वीकृति है
🙏🌹🙏

🙏नमन मंच 🙏
#कलम बोलती है साहित्य समूह
#विषय अन्याय
#विधा लघुकथा
#दिनांक ०९/०९/२१
#दिन गुरुवार

आज का दौर कैसा हो गया एक दूसरे पर विश्वास करना मुश्किल हो गया।
गैरो से हम क्या गिला शिकवा करें, जब सगा भाई दगा दे गया।
बात उन दिनों की है जब मेरे माता-पिता एक ही दिन में कुछ मिनटों के अंतराल में परमधाम को प्राप्त हो गये थे ।
उसके कुछ दिनों बाद ही हम भाइयों में बंटवारे को लेकर बात हुई ,
उन्होंने मेरे सीधे स्वभाव का फायदा उठाकर मेरे और मेरे बच्चों के साथ अन्याय किया मुझे अपनी बातों में उलझाकर मुझसे कागज पर सिग्नेचर करा लिए , मेरा छोटा भाई कह रहा था कि मैं नौकरी छोड़ कर पापा की दूकान पर बैठा करुंगा मैं बहुत भावुक किस्म का इंसान हूँ, मैंने भावना में आकर जैसा उन्होंने कहा कर दिया। उन्होंने मुझे 50 हजार रुपए दिए और कहा यह मकान का और दुकान का तुम्हारा हिस्सा।
लेकिन मुझे कुछ दिनों बाद पता कि उन्होंने पाया की दुकान को साढेतीन लाख रुपए में बेच दिया और मुझे धोखे में रखा।

तरुण रस्तोगी कलमकार
मेरठ स्वरचित
🙏🌹🙏

रचनाकार :- आ. रश्मि शुक्ल जी 🏆🏅🏆

🙏 सादर नमन मंच 🙏
#कलम ✍️ बोलती है साहित्य समूह
#विषय क्रमांक - 331
#दिनांक -07/09/2021
#दिन - मंगलवार
#विषय - वो लम्हें 
#विधा - कविता
स्वरचित- रश्मि शुक्ल रीवा (म.प्र.) ***************************
*वो लम्हें*

वो लम्हें तुम लौटा दो,
जो साथ बिताये मेरे।
फिर दूर हुए तुम ऐसे,
जैसे बादल बड़े घनेरे ।

उन लम्हों में जीना मरना,
वो वादे संग थे तेरे ।
कैसे उनको अपना समझूँ,
जो हुए कभी न मेरे ।

उर में सदा समाई मेरे, 
यादों की पूंजी ये तेरे ।
नही शिकायत,न ही शिकवा,
खुशियाँ इतनी हिस्से मेरे।

विश्वास कि ज्योति जली,
उम्मीदें,सपने पलते थे मेरे।
मन हार गया अब मेरा,
छांटे नहीं है घोर अँधेरे ।

सरगम मिली जिंदगी को,
ख्वाबों से थे वो लम्हें तेरे ।
संगीत सा फिर सजाया उन्हें,
गाया जिन्हें अधरों ने मेरे ।

 यादों की बदली छाती, 
वो लम्हें साथ में लाती ।
जब होते थे सुखद सवेरे,
वो लम्हें थे मेरे,वो लम्हें थे मेरे ।

*****
 स्वरचित-*रश्मि शुक्ल*
रीवा (म.प्र)

ब्लॉग के लिए 🙏

🙏 सादर नमन मंच 🙏
#कलम बोलती है साहित्य समूह 
#विषय - गणेश वंदना
#बिषय क्रमांक - ३३३
#विधा - स्वैछिक (चौपाई)
#दिनांक - ११/०९/२०२१
स्वरचित- रश्मि शुक्ल रीवा (म.प्र.) ***************************

*चौपाई*
शिव जी के ये सुत हैं प्यारे।
गौरी नंदन नाथ हमारे।।
इनकी महिमा सबसे भारी।
मूषक की नित करे सवारी।।

एकदंत प्रभु आप कहाये
गजमुख नाम आप ही पाये ।
मोदक तुमको अतिशय भाया
सबने इसका भोग लगाया ।

विघ्न विनाशक सिद्ध विनायक 
सबको वर देते सुखदायक ।
पहली पूजा के अधिकारी
दर पर खड़े सभी नर नारी ।

चरण शरण जो जन हैं आऐ
विपदा उनकी दूर भगाये ।।
रिद्धि सिद्धि के तुम हो स्वामी
कष्ट हरो तुम अंतरयामी ।।

***
स्वरचित- रश्मि शुक्ल रीवा (म.प्र)

रचनाकार - आ. दमयन्ती मिश्रा जी 🏆🏅🏆

नमन मंच _ कलम बोलती हे
क्रमांक_३३१
दिनांक_७/९/२०२१
विषय_वो लम्हे
 जिदंगी भी कमाल हे ।
कभी हंसाती कभी रुलाती ।
कुछ लम्हे ऐसे आते ,
भूलते नही मृत्यु पर्यंतं।
हो गम के या‌खुशी के ।
 समय अपने हिसाब से चलता ।
सुख दुख के लम्हे आते कर्म से ।
ये पल होते अग्नि परीक्षा के ।मंजिल पानी हो या गृहस्थ आश्रम।
 हर लम्हे मे है परीक्षा ।
द्दढ़ निश्चित बढ़ता आगे ।
 यही जीवन का सुखद लम्हा ।
कई अपने बिछडे इस कोरोना मे ।
कई देश मे‌ छाई‌ काली घटाऐ ।
ये दुखद लम्हे नही भूल सकते ।
दमयंती मिश्रा


रचनाकार :- आ. डॉ अर्चना नगाइच जी 🏆🏅🏆

नमन मंच🙏
           कलम बोलती है 
          विषय:-- --"वो लम्हे"
          क्रमांक-- 331
           07.09.21
          कविता

           नहीँ भूल पाए वो लम्हे
          ए जिंदगी!  जब तूने सपने दिखाए
           कभी खुशियों के मेले घुमाए
           कभी दुख के सागर में गोते लगवाए
            लम्हे बेहद करीब रहे जिंदगी तेरे
             हम हैं शुक्रगुज़ार सुख दुख की
             यह महफ़िल सजती रही  बस
              हर बार...
             आज उस पल की करती हूं ह्रदय से आभार
             जब वेदना पिघल कर करती रही अश्रुधार
              धन्य है कलम तेरा तूने संवेदना को सहर्ष 
               किया साकार 
             कविता बनी जब ह्रदय की पीड़ा का आधार
            लम्हे वे भी आते हैं याद बहुत जब मंच कलम
             ने स्वागत कर किया अंगीकार
             सौ बार  धन्य कविता कलम का मंच
             जब अनगिनत रचनाकारों के हुए सपने साकार।

  स्वरचित ,मौलिक
 डॉ अर्चना नगाइच
  07.09.21


ब्लॉग के लिये

रचनाकार :- आ. कल्पना सिन्हा जी 🏆🏅🏆

नमन मंच  
कलम बोलती है साहित्य समूह 
विषय:-वो लम्हें
विधा:-कविता (स्वैच्छिक)
दिनांक-6/9/2021

                कभी जब मन बिखरने लगता
                परिरंभण  स्मृतियों का तब होता
                धूमिल होते यादों से चुनकर
                कुछ अनमोल वो लम्हें लाता
        गुजरे पल अक्सर याद आते 
        मन सिन्धु के तटों से टकराते 
        लहरों से जब अन्तर्मन विह्वल होते  
        पैठ अन्तस में चंद मोती चुन लाते 
               कुछ  पाने से न हुआ हर्षित 
               न कुछ खोने से हुआ विचलित 
               इम्तिहानों का सिलसिला यूँ चलता रहा
               हर उन लम्हों में मन तटस्थ रहा 
      हाँ कुछ लम्हें ऐसे होते
      विसराये जो न कभी जाते
      अन्तर को स्पन्दित करते रहते
      यही निज जीवन को परिभाषित करते।।

कल्पना सिन्हा
स्वरचितव मौलिक 
 मुम्बई ।
              
                

  
   अनुरोध है कि हमारी रचना को ब्लाॅग पर पोस्ट की जाये।

रचनाकार :-आ. पायल राधा जैन जी 🏆🏅🏆

रचनाकार :- आ. विनोद शर्मा जी 🏆🏅🏆

सादर नमन
कलम बोलती है साहित्यिक मंच
मंगलवार,07.09.2021
विषय क्र.--331
विषय---"वो लम्हे'
विधा--- गीत
--------------------------------------------------------------------
                   *वो लम्हें*
                 ~~~~~~~
बहुत चाहा है चाहते हैं अब तक तुम्हें।
बीत गए वो सुहाने पल और#वे_लम्हें।

चटख पड़ीं होंठों की कलियाँ,
जब मधुमास बनी थीं।
प्यासे मन की सारी गलियाँ ,
मंजिल आभास बनी थीं।
अटक भटक हो चार निगाहें,
जब इक सौगात बनी थीं।
लहर लहर कर केश घटाएँ,
जब काली रात बनी थीं।

कितने बहुत सुहाने थे नेह भाव जो बहे।
वो शुचि मंगल रातें थी,वो हसीन लम्हें।।बीत.....

जब कहार हिचकोले खाती,
डोली लेकर आए थे।
तुमने अपने चंपई सपने
नयनों बीच सजाए थे।
हमने तेरे हिरनी जैसे जब
नयन लजाए पाए थे, 
रतनारी चूनर में भी तेरी,
चंदा तारे टकवाए थे।

गूँज उठे थे जब अधरों से कहकहे।
याद हमें आते हैं वो पल वो लम्हें।बीत....

मन की कोयल भी तो तब
रूठ रूठ जाती थी।
शायद मनुहारों के खतिर
शहनाई नहीं बजाती थी।
वह रात याद है तुमको जब, 
हमें नींद न आई थी।
माहुर ने गीत गाए थे तब,
मेंहदी ने लोरी गाई थी।

कसक उठ रही अब शब्द हुए अनकहे।
वो तुम सँग बीते मेरे बो पल वे लम्हें।।बीत......

                        विनोद शर्मा
                        पिपरिया (म.प्र.)

#रचनाकार :- आ. अरविंद सिंह "वत्स" जी 🏆🏅🏆

नमन-कलम बोलती है साहित्य समूह
विषय क्रमांक------------------331
विषय-------------------------लम्हें
तिथि---------------07/09/2021
वार-----------------------मंगलवार
विधा--------------------------गीत
मात्राभार-------------------16,14

                             #लम्हें

घायल  करते  फिर  वो लम्हें,उर को बहुत सताते हैं।
बचपन  बीता  था  संकट  में,मन से आज बताते हैं।।

सच्ची  बात  बताना जग को,धरती ये परमारथ की।
भूल  गये  सब परमारथ को,जीत हुई है स्वारथ की।।
अन्तर्मन  में  राक्षस  बसते,जिनके  कर्म  रुलाते  हैं।
घायल  करते  फिर वो लम्हें,उर को बहुत सताते हैं।।

तन  पर  बीता है जो सुनिये,मन ये दुखड़ा गाता है।
सुबह  शाम  अरु दिन रैना ही,यादों में आ जाता है।।
समय  पुराने  याद  अभी तक,गहरे घाव जलाते हैं।
घायल  करते फिर वो लम्हें,उर को बहुत सताते हैं।।

मन - मन्दिर  में टीस उभरती,जौ की रोटी खाते थे।
नहीं  समय  पर  भोजन  पाते,भूखे ही सो जाते थे।।
वतन  लूटना  अंग्रेजों का,आज समझ हम पाते हैं।
घायल  करते फिर वो लम्हें,उर को बहुत सताते है।।

सोना  चाँदी  और  जवाहर ,गोरे  घर  पहुँचाते  थे।
लाज न आई थी गोरों को,क्षिति पर लहू बहाते थे।।
धरती  तड़पी  आजादी बिन,घाव सदा तड़पाते हैं।
घायल करते फिर वो लम्हें,उर को बहुत सताते है।।

अरविन्द सिंह "वत्स"
प्रतापगढ़
उत्तरप्रदेश

विषय_शिक्षा_का_आधुनिकीकरण_कितना_सही



       बदलते परिवेश में जहां हर क्षेत्र में आधुनिकीकरण का विकास हुआ है। वहीं शिक्षा क्षेत्र में भी आधुनिकीकरण का विकास होना स्वाभाविक है, लेकिन ये किस हद तक सही है, ये कह पाना थोड़ा मुश्किल है।
        हर बात के दो पहलू होते हैं, उसी तरह उस के भी सही और गलत दो पहलू हैं। हाँ, ये हम पर निर्भर करता है,कि हम इसका उपयोग कैसे और किस तरह करते हैं, उसी तरह इसका परिणाम भी होता है। 
       यदि हम आज की विकट स्थिति को देखते हुए  कहे तो ये बहुत ही उपयोगी साबित हुआ है। क्योकि आज महामारी की वज़ह से बच्चे शिक्षा से वंचित रह जाते। यदि आधुनिक उपकरणों का इस्तेमाल नहीं किया जाता।
           वहीं हम यदि मानसिक विकास के बारे में सोचते हैं, तो ये बहुत ही घातक भी साबित हो रहा है क्योंकि आज इन्टरनेट ने जहां बहुत ही कम समय में जानकारी उपलब्ध करायी हैं। वहीं बच्चों के मानसिक विकास में बाधा भी उत्पन की है। बच्चे मनन करना भूल गये हैं। हर प्रश्न का उत्तर उनको सिर्फ बटन दबाते ही मिल जाता है, तो वो लोग याद रखना भी जरूरी नहीं समझते हैं। इससे उनके मानसिक विकास में बाधा उत्पन्न हुई है।
            अतः मेरा विचार से हमें अपने बच्चों को आधुनिक स्त्रोतों का उपयोग जरूर करने देना चाहिए लेकिन अपनी मौजूदगी में और सिर्फ आवश्यकता अनुसार ही। तभी हम अपने बच्चें के अच्छे और सुदृढ़ भविष्य का निर्माण कर पायेगे।

उमा वैष्णव
मौलिक और स्वरचित

सोमवार, 6 सितंबर 2021

रचनाकार :- आ. निकुंज शरद जानी जी

'जय माँ शारदे'
विषय क्रमांक-331
विषय- वो लम्हें
विधा- आलेख
दिनांक-06-09-2021

 वो दौर हस्त- लिखित रचनाओं का दौर था ---- बहुत- सी काव्य- कथा- निबंध प्रतियोगिता में मैं सहभागी हुआ करती थी आज की तरह ही-----!
हिन्दी साहित्य अकादमी ' कहानी प्रतियोगिता में मेरी कहानी ' डूबते हुए सच ' को गुजरात राज्य में प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ था----
यूनिवर्सिटी सेनेट हाॅल विद्यार्थी व विद्वान गुरूजनों के आवन- जावन, अगर की धूप और सरस्वती वंदना की मधुर धुन से आह्लादिक था----!
वृहत स्टेज फूलों से सुसज्जित एवं माँ शारदे की प्रतिमा पीताम्बरी पुष्पों से शोभायमान एक अनोखा- अनूठा  वातावरण---- अवस्मरणीय---!
और वो लम्हा भी आ गया जब मुझे श्री श्री गुरूवर विद्वान शिरोमणी आचार्य श्री के.का.शास्त्री जी के हाथों रजत- चंद्रक प्राप्त हुआ----!
वास्तविकता थी या स्वप्न----!
जब मुझे अपना प्रतिभाव व्यक्त करने के लिये माइक दिया गया तब मेरे शब्द ब्रह्म थे क्योंकि मेरी पूर्व तैयारी का एक भी शब्द स्मरण नहीं रहा था---!
वास्तविक! लेकिन स्वप्न से वो लम्हें लेखन के लिऐ प्रेरणास्वरूप बने हुए हैं आज भी-----।

---- निकुंज शरद जानी 
स्वरचित और मौलिक आलेख सादर प्रस्तुत है। 
( समीक्षा हेतु सादर) 

'जय माँ शारदे '
विषय क्रमांक-335
विषय- बावरा मन 
विधा- कविता 
दिनांक-15-09-2021
समीक्षा हेतु सादर प्रेषित-

बावरा मन 
----------------
क्षण भर जिसे राहत नहीं!
चाहतों का कोई छोर नहीं!
आँखों से ओझल हो जाए चाहे 
मन की डगर ना जाए कोई!
आस- विश्वास की पनाह खोजने 
मानो निकल पड़ा अनजान राह बटोही!

डगर- डगर छांव चितवन 
फिर भी हृदय-ताप प्रज्जवलन!
अनुराग- राग की कितनी ही परतों में 
स्वयं को ही बिसरा बैठा निर्मोही!

कब सुनता अपनी बावरा मन!
अरमानों के पंख पहन 
छटपटाहट के गूढ़ रहस्यों में 
अपनी उद्वेगना को छलता नित्!
कभी किसी ठांव राहत ना पाता बटोही!
छलना से इस संसार में 
पल दो पल का है बसेरा 
फिर भी इसे अपना मुकाम समझ बैठा वह!
जाते हुए देखता रहा औरों को 
फिर भी वास्तविकता से आँखे चुराता 
निज- मोही!

प्रेम- प्रीत के ढाई आखर ना पढ़ पाए 
जीवन भर!
नफ़रत को उकेर लेता क्षण- भर!
एक अलख ऐसी जगाए 
राह चला जा रहा अनदेखी!!!
बावरा मन!
भटके ऐसे!
मृगतृष्णा हो जैसे!
कस्तूरी स्वयं में समाये 
सुगंध की आस लगाऐ बैठा 
अनकही----!!!

----निकुंज शरद जानी 
स्वरचित और मौलिक काव्य सादर प्रस्तुत है।


रचनाकार :- आ. रीतूगुलाटी "ऋतंभरा"जी

कलम बोलती है।
विषय..वो लम्हें
विधा.. कविता

वो लम्हे कितने हसीन थे
जब  हम तेरी पनाह मे थे।

वो लम्हे याद आते है हमे।
गुजारी राते हमनशी संग तेरे।

 लम्हो की गुजारिश है तुमसे।
पास आओ लौट के हमारे।

कैसे गुजारे ये वक्त के धारे।
जो बिताये थे संग मैने तुम्हारे।

स्वरचित..
रीतूगुलाटी. ऋतंभरा..ब्लाग पर डाले

कलम बोलती है।
विषय..अन्याय
विधा..लघुकथा
#दिनांक..8-9-21

सांध्यकालीन वय मे स्वयं को जागरूक प्राणी समझ दम्पति ने विचार किया और सिविल अस्पताल मे जाकर कोरोना से बचने के लिये वैक्सीन लगवा ली..।।कोई बुखार वगैरा भी नही आया..अब पूरी तरह वो आश्वस्त थे.कि वो बाहर कही भी जा सकते हैं...मगर एक सप्ताह बाद...वो दोनो लंच कर सुस्ताने हुए लेट गये तभी एकाएक रानी को ठंड लगने लगी..और उसने पतिदेव को पंखा बंद करने को कहा..और मोटी चादर लेकर सो गयी।पतिदेव ने शाम की चाय खुद बनायी और रानी को भी दी।तभी उसने रानी को छुआ..
--अरे तुम्हें तो बुखार है..कहकर थर्मामीटर लगाया..।बुखार ज्यादा तेज तो न था,हाँ 100पर था।
--अरे छोडो ना,हो जायेगा ठीक..ले लूँगी पेरासिटामोल..।
--नही नही..लापरवाही ठीक नही..अभी चलो पास के डाक्टर को ही दिखा लेते हैं।
दोनो डाक्टर के पास गये..।रानी पढ़ी लिखी थी..
कोरोना को जान रही थी..तभी डाक्टर से पूछ ही लिया...डाक्टर साहाब..क्या हुआ है मुझे..??
--आपको वायरल बुखार है,मै दवा दे रहा हूँ..ठीक हो जाओगी।.मगर बुखार नही उतरा..और खाँसी बढ गयी..साँस फूलने लगी थी।चूकिं रानी को ब्लडप्रेशर कम ज्यादा रहता था अतः उसने सीरियसली नही लिया। फिर भी रानी ने डाक्टर को साफ कह दिया।
--डाक्टर साहाब न तो मेरा बुखार उतरा और खाँसी के कारण मैं सो भी न पायी रात भर। डाक्टर ने आश्वासन दिया...मगर..अगले ही दिन जब पतिदेव को भी 100 पर बुखार देखा तो रानी का माथा ठनका..। उसे अब कुछ शक हुआ..दोनो 
 ने कोरोना टैस्ट करवाया और वो दोनो ही पाँजिटिव हो गये।आनन फानन मे कोरोना का इलाज शुरू करवाया और दोनो ने फोन पर ही स्पेशली कोरोना डाक्टर का परामर्श लिया व बाहर से खाना मंगवाना शुरू किया।घर पर ही अपना इलाज लिया।आक्सीमेटर से आक्सीजन चेक करते रहे और आक्सीजन लेबल 87 होने पर घर पर ही सिलेंडर रखवा लिया। 14 दिन बाद बुखार उतर गया। कुदरत के हुऐ इस अन्याय पर समझदारी से दम्पति ने मृत्यु पर जंग जीत ली थी।
स्वरचित
रीतूगुलाटी. ऋतंभरा


रचनाकार :- ममता झा जी 🏆🏅🏆

नमन कलम बोलती है साहित्य समूह 
विषय क्रमांक-331
विषय-वो लम्हें
*******************************
ज़िन्दगी के बिते हुए पल, 
बन जाते हैं वो लम्हें।
यादों के खजाने में फिर, 
जुड़ जाते हैं वो लम्हें।
कभी शब्दों में तो कभी लफ्जों में,
याद आते हैं वो लम्हें।
कभी छलक कर आँखों का जल,
बन जाता है वो लम्हें।
कभी सफर में हमसफर सा,
साथ देती है वो लम्हें।
कभी रूह को छूकर, 
गुजर जाते हैं वो लम्हें।
कभी विरह तो कभी खुशी बन,
एहसास दिलाती है वो लम्हें।
कभी सावन की पहली बारिश सी,
बरस जाती है वो लम्हें।
कभी हाथो से रेत सी,
फिसल जाती है वो लम्हें।
कभी नासूर सा दर्द देकर, 
गुजर जाते हैं वो लम्हें।
इक इक पल जो भी बित गए, 
हर पल सताती है वो लम्हें।
*******************************
ममता झा
डालटेनगंज 
ब्लॉग के लिए

रचनाकार :- भगवती सक्सेना गौड़, बैंगलोर 🏆🏅🏆

#कलम बोलती है साहित्य समूह
#दैनिक विषय 331
#विषय वो लम्हे
दिनांक 6 सितंबर 
विधा कहानी
प्रस्तुतकर्ता भगवती सक्सेना गौड़, बैंगलोर

चांद और चकोर

अचानक एक दिन कॉलेज में चन्द्रविजय ने कहा," सुनो, चकोरी, पापा मुझे आगे की पढ़ाई के लिए टोक्यो भेज रहे है, एक महीने में मैं यहां से चला जाऊंगा।"
"कैसे तुमने ये सोच लिया, कि मैं तुम्हे बिना देखे, बिना मिले भी जीवित रहूंगी।" ये चकोरी के शब्द थे
" अरे, डिअर, दिल मे मेरे भी रह रह कर टीस उठ रही है, ये वो दर्द है, जो कोई पेनकिलर से भी खत्म नही होगा। क्या करूँ, पापा की ख्वाहिशों को मैं झुठला नही सकता। देखो मेरी आँखें, कल से एक सेकंड को भी तुम दूर नही हुई।"
एक वादा करता हूँ, चकोरी, जब भी तुम आकाश के चांद को देखोगी, तुम्हे मेरी सूरत दिखाई देगी, तुम ये गाना जरूर गुनगुनाना "जाने कितने दिनों के बाद गली में आज चांद निकला"
और चकोरी का चंदू उससे भविष्य में जरूर मिलेगा, ये बोलकर चला गया।
भाग्य की रेखाएं बिना सोचे समझे कहीं भी मुड़ जाती हैं, और चकोरी के पापा ने उसकी शादी एक सूरज नामक लड़के से कर दी, चकोरी सिर्फ सूनी नजरो से अपना श्रृंगार देखती रह गयी। सूरज के ताप से प्यार तो नही सिर्फ एक धन वैभव का संसार पाया।
आज पूर्णमासी थी फिर उसे वो बीते लम्हे याद आने लगे, गार्डन में घूमते हुए, अपने चंदू को देखते हुए, फिर गुनगुनाने लगी "जाने कितने दिनों के बाद गली में आज चांद निकला"

स्वरचित
ब्लॉग के लिए

रचनाकार :- आ. अशोक शर्मा जी 🏆🏅🏆

नमन मंच
कलम बोलती है साहित्य समुह
दैनिक विषय क्रमाँकः 331
आज का विषयः वो लम्हे
विधाः-कविता(मुक्त छंद)
ओ लम्हे 
याद है जब हम थक
सो गये माँ गोद में।1
वो लम्हे 
भुल नही पाते है
जब छोटे छोटे बातों
हम रूठकर 
चुप बैठ जाते थे
और माँ मनाती थी.बाल में
फेर कर
 अपनी कोमल उंगलियों से।2
क्यो याद आते है
 रह रहकर 
दोस्तों.से झगड़ना
मिलना
रूठना मनाना
और एक साथ की हँसी
खुशी और गम।3
आज शायद
यही ऐहसास जीने के
लिए बन गई है प्राण तत्व।

रचनाकार :- आ. ओमप्रकाश गुप्ता जी 🏆🏅🏆

#"कलम बोलती है" साहित्य समूह
# दैनिक_विषय_ क्रमांक_३३१
# आज का विषय # वो लम्हे
#विधा_ स्वैच्छिक
# प्रस्तुतकर्ता: ओमप्रकाश गुप्ता, बैलाडीला, दन्तेवाड़ा, छत्तीसगढ़
#दिनांक: 06:09:2021



हमारे गाँव के ओर जाती हुई पगडंडियाँ,
क्यों तू तब्दील हुई अब पक्की सडकों में । 
खेतों में चलने वाले वो हमारे बैलों के हल,
चोला छोड बदल गये पावर टीलर यंत्रो में ।
ईंटों के ये घर , फिर मिट्टी के बन जाओ न,
सुकून के वो लम्हे! हो सके लौट आओ न ।।1।।

         खोई सोंधी दीवारें,गलियों के स्कूलों में ,
         सन्नाटा फैला दरख्त में बैठी बुलबुलों में,
         गुरुओं के वो ओज, समाते थे शिष्यों में,
         सलोने सपने बुनते,पुरखों के किस्सो में,
         आ गये टी वी में,अब बहारों में छाओ न,
         मेरी अल्हडता ! बन सके लौट आओ न।।2।।
         
खोये सोहर ललना के,बदले वे बर्थ डे में,
विवाह के लोकगीत खोये यूँ रिसेप्शन में,
नूपुर की रुनझुन खोई बाबू के अंगना में,
झूले संग कजली चुप,हाथों के कंगना में,
सब गुमसुम है,छम छमकर किलकारों न,
छिप गये जहाँ, हो सके तो लौट आओ न।।3।।

आ. ओम प्रकाश गुप्ता जी की e-book

http://antrashabdshakti.com/2020/12/19/साहित्य-साधक-सम्मान-2020-ओमप्/




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आ. ओम प्रकाश गुप्ता जी की E-book

https://antrashabdshakti.com/2021/11/09/
https://antrashabdshakti.com/2021/11/09/%e0%a4%a4%e0%a4%bf%e0%a4%a8%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%b9%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%87-%e0%a4%a8%e0%a5%80%e0%a5%9c-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%93-%e0%a4%aa%e0%a5%80-%e0%a4%97%e0%a5%81%e0%a4%aa/







रविवार, 12 जनवरी 2020

युवा - दिवस

युवा वर्ग को भारत का ,
 आधार बना देगे, 
उन्नत भारत का सपना साकार बना देगें,

नहीं हारेंगे, नहीं थकेगें, 
संघर्षों से आगे बढ़ेंगे ,
बड़ा ही सुंदर भारत का आकार बना देंगे,
उन्नत भारत का सपना साकार बना देगें

बाधा चाहे कितनी आए, 
चाहे कोई हमारी राहे रोके, 
दुश्मन के सब मंसूबे को बेकार बना देंगे,
उन्नत भारत का सपना साकार बना देगें


कठिनायाँ से कभी ना हारे, 
चाहे पांव में कांटें हो हमारे, 
काँटों को भी अपने पथ का गुलहार बना देगें, 
उन्नत भारत का सपना साकार बना देगें


नही रूकेगें, नहीं ठहरेगें, 
कदम निरंतर आगे बढेगें, 
समय से भी तेज अपनी रफ़्तार बना देगें, 
उन्नत भारत का सपना साकार बना देगें। 


Uma vaishnav
मौलिक और स्वरचित

गुरुवार, 2 जनवरी 2020

दिल ❤️ की आवाज

मेरे गीतों की आवाज तुमको भी सुनाई देगी
मेरे सितार की ये तान तुमको भी सुनाई देगी।

जब पायल पहन के मिलने तुमसे कभी आऊंगी 
मेरे घुंघरू की झंकार तुमको भी सुनाई देगी। 

जब भी पहन कर आऊंगी मैं हाथों में कंगन
 मेरे कंगन की खनक तुमको भी सुनाई देगी। 


जब भी पहन कर  आऊंगी मैं कानों में झुमके
मेरे झुमके की आवाज तुमको भी सुनाई देगी।


जब भी कभी होगी दिलों की दिल से बातें 
मेरे धड़कन की आवाज तुमको भी सुनाई देगी ।

उमा वैष्णव
मौलिक और स्वरचित 

रचनाकार :- आ. संगीता चमोली जी

नमन मंच कलम बोलती है साहित्य समुह  विषय साहित्य सफर  विधा कविता दिनांक 17 अप्रैल 2023 महकती कलम की खुशबू नजर अलग हो, साहित्य के ...