'जय माँ शारदे '
विषय- क्रमांक-539
विषय- धूप
विधा- पद्य-लेखन
दिनांक-18-01-2023
सादर समीक्षार्थ।
धूप
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आती धीमी- धीमी पद्चाप लिए
फिर भी पायल सी झंकृत हो जाती
धूप यूँ इठलाती----
मेरे आंगन के हृदयाकाश में छा जाती----
वो बर्फ़ जो ठसक गई थी काहिली सी
पिघल- पिघल कर अनुसंधान पा जाती!
मौन होते हुए भी मुखर सी
मानो मुझसे ही मुख़ातिब होना चाहती----
धूप के एक टुकड़े को
मुट्ठी में बंद कर लेने का एहसास
अब तक है बाकी
यूँ धूप अंगड़ाई लेती और
मुझमें समा जाती----
गौर वर्ण चितवन चंचल सी
कभी कोमल तो कभी कठोर सी
आह की कसक से वाह में ढल जाती
धूप मौसम की करवट के संग हर रंग में ढल जाती
मेरे आशियां में एक परछाई
धूप लाती कुछ ऐसे
लतिकाओं की तरुणाई दीवार लांघकर आ जाती जैसे
ना जाने कब- कहाँ प्रतिबिंबित हो जाती
कभी उन्हीं झंकृत स्वरों में ढलकर
एक मधुर गीत बन जाती और
संवेदना बनकर कभी विछोह और
कभी मिलन रागिनी बन धूप गुनगुनाती---
हाँ! धूप मुझे है भाति!
हाँ! धूप मुझे है भाति!!
---- निकुंज शरद जानी
स्वरचित और मौलिक रचना
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