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रविवार, 17 अप्रैल 2022

#लघुकथा_आयोजन.. पाठशाला (आ. देवेश्वरी खंडूरी जी)

"कलम ✍️बोलती है" साहित्य समूह,
मंच को प्रणाम 🙏🙏
विषय -पाठशाला (लघु कथा) 
क्रमांक संख्या -423 
दिनांक -16 /4/ 2022
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🙏🙏मां शारदे का नमन वंदन करते हुए🙏🙏
          मां सरस्वती का वास है पाठशाला
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏

         पाठशाला का अर्थ बचपन में हमने समझा नहीं, जब घर से तैयार होकर पढ़ने के लिए जाते थे, तो दिल और दिमाग में यह नहीं आता था ,कि विद्या अध्ययन करके हमें कुछ आगे बढ़ना है। मस्ती में झूमते , खेलते- खेलते स्कूल पहुंचते थे। पर्वतीय क्षेत्रों में स्कूल बहुत दूर-दूर एवं गिने चुने होते थे। उस समय पर्वतीय क्षेत्रों में अंग्रेजी स्कूल नहीं होते थे। सरकारी स्कूल होते थे। कक्षा एक से कक्षा तीन तक पाटी पर लिखते थे। पार्टी आजकल की सिलेट की तरह होती थी। अब तो वह दूर दूर तक नजर नहीं आती। पुरानी सारी वस्तुएं समाप्त होती जा रही है। उस समय सारे सरकारी स्कूलों में जमीन पर टाट पट्टी बिछाकर बैठते थे । गुरुजी श्यामपट्ट पर लिखकर पढ़ाते और समझाते थे। उस समय की पढ़ाई बहुत अच्छी होती थी।
            समय से पाठशाला पहुंचकर पहले ईश्वर प्रार्थना , प्रार्थना के बाद सदाचार का पाठ, फिर पीटी, याने व्यायाम सिखाया जाता था। मध्यांतर में मिल्क पाउडर घोलकर सभी छात्रों को दिया जाता था। सभी छात्र बड़े शौक से पीते थे। 
             गुरुजी का सभी छात्रों के प्रति पढ़ाई की ओर विशेष ध्यान रहता था, साथ ही लिखावट पर भी बहुत मार पड़ती थी , क्रमबद्ध लिखना, अक्षरों को सही ढंग से मिला कर लिखना, सभी छात्रों का उत्साह बढ़ाते रहते थे। उस समय पांचवी कक्षा एवं आठवीं कक्षा का भी बोर्ड हुआ करता था, और काफी दूर बोर्ड का सेंटर पड़ता था। उस समय आवागमन के साधन भी नहीं थे। काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता था।
           आखरी क्लास में सभी छात्र खड़े होकर पहाड़े, गिनती, कविता दोहराते थे, खूब जोर जोर से बोलकर याद करते थे। उस समय के स्कूलों में पढ़ाई के अलावा कोई दिखावा नहीं था। बहुत अच्छा समय व पाठशालाएं थी।
              मुझे बहुत अच्छा लगता है ,मैंने सरकारी स्कूल में विद्या अध्ययन किया, आज शिक्षा का स्वरूप बदल गया। समय बदला समय के साथ सब कुछ बदल गया।

देवेश्वरी खंडूरी ,
देहरादून उत्तराखंड।

#लघुकथा_आयोजन.. पाठशाला (आ. अनामिका मिश्रा जी)

#नमन मंच 
#विषय -पाठशाला 
#विधा लघुकथा 
#दिनांक- 16/04/22

शर्मा जी जाने-माने धनी व्यक्ति थे। उनके यहांँ एक ड्राइवर काम करता था। शर्मा जी का बेटा जिस स्कूल में पढ़ता था,वहीं ड्राइवर का भी बेटा पढ़ता था।
शर्मा जी को अपने धनी होने का बहुत ही गुमान था और उनका बेटा भी एकदम उन्हीं की तरह था। 
दोनों एक ही स्कूल में थे,वो ड्राइवर के बेटे का स्कूल में मजाक उड़ाया करता था, "अरे इसके पिता मेरे यहांँ ड्राइवर है!"
एक बार स्कूल में कोई फंक्शन था। सभी छात्र छात्राएं मंच पर कार्यक्रम कर रहे थे। 
ड्राइवर का बेटा राहुल का प्रदर्शन बहुत ही अच्छा हुआ। 
शर्मा जी के बेटे को भी पुरस्कृत किया गया।
पर मंच पर पुरस्कार लेते समय ड्राइवर के बेटे राहुल ने अपने सभी शिक्षक,शिक्षिकाओं का अभिवादन किया, चरण स्पर्श किया और उनके सम्मान में कुछ शब्द कहे। 
उसी जगह शर्मा जी का बेटा बिना कुछ कहे पुरस्कार लेकर अपनी जगह पर चला गया। 
राहुल के इस गुण से उसके स्कूल के प्रधानाध्यापक खुश होते हुए मंच पर बोले,"आज राहुल के इस व्यवहार से मैं बहुत ही खुश हुआ हूंँ,भले ही हम पाठशाला में सीखने आते हैं, पर हमारी पहली पाठशाला हमारा घर होता है,और शिक्षक माता-पिता, और राहुल ने इसका परिचय दिया है!"
सभी अभिभावक तालियां बजा रहे थे और शर्मा जी स्तब्ध बैठे सुन रहे थे। 

स्वरचित अनामिका मिश्रा 
झारखंड जमशेदपुर

#लघुकथा_आयोजन.. पाठशाला (आ. अंजु श्रीवास्तव जी)

नमन मंच 
कलम बोलती है साहित्य समूह 
विषय :पाठशाला
क्रमांक संख्या 423 
आज की कहानी पाठशाला से शुरू होती है जिसे जीवन में पाने के लिए मैंने बहुत संघर्ष किया था पिता के ना रहने पर बहुत जल्दी मेरा विवाह भी हो गया उसके पश्चात एक बेटी बेटा मेरी गोदी में हो गया समय गुजरता रहा और मैं अपने बच्चों के लालन-पालन में लगी रही एक दिन जब मैं अपने मायके गई तो मैंने देखा पास के इंटर कॉलेज एनटीटी कोर्स करने के लिए फार्म रखे थे मैंने फार्म भरे और मेरा सिलेक्शन हुआ उसके बाद में मैंने ठाना कि मुझे एक सरकारी नौकरी करनी है उस पाठशाला में जाना है जहां पर बच्चे गांव के पढ़ने आते हो मेरे मियां बी,एड किया m.a. किया और उसके पश्चात जमकर पढ़ाई की इसके पश्चात एक गांव की सुदूर सुंदर से गांव मैं मेरी पोस्टिंग हो गई वह गांव जितना सुंदर था इतनी सुंदर मां के बच्चे भी थे उन प्यारे बच्चों ने मेरा मन मोह लिया और मैं आराम से लग्न के भाव से उस पाठशाला में पढ़ाने लगी मेरे पढ़ायेबच्चे लगभग सभी प्रतियोगिता में भाग लेते थे मैं उनकी अध्यापिका के साथ-साथ उनकी स्थिति बन गई थी धीरे-धीरे समय बता और वो पाठशाला मेरा जीवन बन चुके सच कहूं शिक्षिका बनना और उस पाठशाला में मुझे पढ़ाना आज भी मेरे लिए गौरव की बात है 
अंजू श्रीवास्तव देहरादून

#लघुकथा_आयोजन.. पाठशाला (आ. मोनिका कटारिया"मीनू" जी)

🌹नमन मंच🌹
कलम बोलती है समूह
क्रमांक 424
दिनांक 16.04.22
विषय – पाठशाला
विधा- लघु कथा

करोना काल-- भयावह ,डरावना काल
सब बंद, इंसान भी ----कभी सोचा ना था भागती दौड़ती ज़िंदगी यूँ ही बस रुक जाएगी
धीरे धीरे जिंदगी पटरी पर आने लगी
तो सुमन हमारी कामवाली बाई भी लौट आयी
कुछ परेशान सी रहने लगी पति भी वापिस काम पर लौट गया था भले ही कुछ तनख़्वाह कम पर , बच्चे भी पहले तो पाठशाला जाते थे। अब घर पर रहकर पढ़ने लगे । 
पर सुमन परेशान ही रहती बार बार पूछने पर एक दिन 
सुमन ने चाय पीते हुए बताया उसे फ़ोन की आवश्यकता है क्यूँकि अब बच्चे पाठशाला नहीं जा सकते- पढ़ाई फ़ोन पर ही होगी , मेरे पास ना तो वैसेवाला फ़ोन है ना ही मुझे चलाना आता है ना ही इतने पैसे है कि मैं नया फ़ोन ख़रीद कर बच्चों को दे सकूँ ताकि उनकी पाठशाला की पढ़ाई फ़ोन पर ही हो जाये । 
एक साँस में सब बोल गई सुमन और रोने लगी ये कैसी मुसीबत आन पढ़ी है दीदी क्या होगा ग़रीबों का?? भगवान भी हम ग़रीबों को ही सताते हैं। 
ऐसा नहीं है सुमन -मैंने उसे ढाँढस बांधते हुए समझाया ये समय ही ऐसा है पूरी दुनिया ही परेशान है। 

मेरे बच्चों ने ये बात समझी और अगले दिनसुमन को अपने बच्चों के साथ आने को कहा
अगले दिन सुमन दोनों बच्चों संग उपस्थित थी 
बच्चों ने अपना मोबाइल दिया, चलाना भी सिखाया
अब सुमन के बच्चे मोबाइल पाठशाला में जाने लगे😊
मैं भी ख़ुश थी कि मेरे बच्चों ने भी सही पाठशाला से पढ़ाई की है साथ ही आज वो ज़िंदगी की पाठशाला में भी ऊतीर्ण हो गये थे। 

स्वरचित एवं मौलिक
मोनिका(मीनू)
16.04.22

#लघुकथा_आयोजन.. पाठशाला (आ. नरेन्द्र श्रीवात्री स्नेह जी)

नमन मंच कलम बोलती है साहित्य समूह 
विषय क्रमांक 424
विषय पाठशाला 
विधा लघुकथा 
दिनांक 16/4/2022
दिन शनिवार 
संचालक आप औऱ हम 

संगीता एक शिक्षित परिवार की लड़की शहर से रामपुर गाँव में शादी होकर आईं। शादी के तीन बर्ष बाद ही पति का स्वर्गवास हो गया। संगीता की दो बर्ष की पुत्री थी। घर में रहते उसका समय मुश्किल से व्यतीत होता। गाँव में कोई पाठशाला नहीं थी शिक्षित भी बहुत कम थे ।उसने अपने घर के सामने पेड़ के नीचे दो चार बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। बच्चों को पढ़ाई में लगाव देख। उसने अपने भाई से कहकर किताबें बुलवा ली। बच्चों की संख्या बढ़ने लगी । वहां के विधायक दौरे पर निकले वहां संगीता को पढ़ाते देखा तो परिचय लिया।विधायक महोदय ने वहां एक पाठशाला खुलवा दी। औऱ कुछ वर्षो में भवन भी बन गया ।संगीता को शिक्षिका के पद पर नियुक्ति हो गई ।
संगीता की मेहनत औऱ लगन काम आईं। 

स्वलिखित मौलिक अप्रकाशित लघुकथा ।
नरेन्द्र श्रीवात्री स्नेह 
बालाघाट म प्र

#लघुकथा_आयोजन.. पाठशाला (आ. गोपाल सिन्हा जी)

पाठशाला
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बरसों बाद वह, अपने गाँव आया था। विदेश में बस जाने के बाद भी, वह, अपने गाँव, गाँव के लोगों, पाठशाला, गुरुजी एवं सहपाठियों को नहीं भूल पाया था। 

उसे याद है सुबह एक मुट्ठी चूड़ा, पानी में भिंगोकर, थोड़ा गुड़ के साथ, माँ, उसे नाश्ते के रूप में, खाने को दे देती थी। 

पानी पीकर, स्लेट-पेंसिल और एक छोटी सी चटाई या बोरिया लेकर, वह, पाठशाला की ओर दौड़ जाता। 

वहाँ शीघ्र प्रार्थना शुरू हो जाती। वह चुपके से शामिल हो जाता। गुरुजी की नजर, उस पर पड़ती। वह संकोच में सिमट जाता।

 गुरु जी प्रेम से, उसे बुलाते और प्रार्थना गाने को कहते। उसकी आवाज अच्छी थी। ऐसा सब लोग कहते थे। 

प्रार्थना के बाद, पाठशाला के बरामदे में कक्षा आरंभ होती। सभी बच्चे अपनी बोरिया बिछाकर बैठ जाते। गुरु जी श्याम-पट पर कुछ लिखते। बच्चों को अपनी स्लेट-पेंसिल निकालने को कहते।

 शहर के स्कूल में जाने से पहले, उसने पाठशाला में, बहुत कुछ सीखा। वर्णमाला, गिनती, पहाड़ा, जोड़-घटाव-गुणा-भाग, भूगोल, इतिहास का आरंभिक ज्ञान। विशेष अवसरों पर प्रभातफेरियों का आयोजन होता था। 

सभी उत्साह-पूर्वक देश-भक्ति-पूर्ण नारे लगाते हुए, गाँव की गलियों से गुजरते थे। राष्ट्र-गान और राष्ट्र-गीत पूरा कंठस्थ, वहीं हो गए थे।

 रामायण-महाभारत से लेकर महापुरुषों की जीवनी से संक्षिप्त परिचय कराया गया था।

 स्वास्थ्य-स्वच्छता-संबंधी नियम, सादगी- सच्चाई, बड़ों का आदर, पशु-धन की सेवा, बागवानी, घरेलू औषधियों और न जाने, कितनी बातें सिखायी गई थीं। 

भारत से दूर रहते हुए, वह बचपन में दिये गये शिक्षा-संस्कार को भूला नहीं था। जीवन में, जो सफलता मिली, उसका कुछ श्रेय, पाठशाला की पढ़ाई को भी जाता था। 

आज पाठशाला भवन की भग्नावस्था को देखकर वह चिंतित एवं लज्जित हुआ। उसने इसके जीर्णोद्धार का संकल्प लिया।

--- गोपाल सिन्हा,
    पटना,
    १६-४-२०२२

#लघुकथा_आयोजन.. पाठशाला (आ. आकाश, बघेल जी)

# नमन मंच
# विषय_ पाठशाला
# विधा_ लघुकथा
# दिनांक _ १७/०४/२०२२
   
     जब कक्षा तीन में पड़ता था । तो में पड़ने में थोड़ा कमजोर होने के कारण में स्कूल बहुत कम जाता था। दिन में खेलना और सुबह - शाम यमुना नदी पर अपनी गाय - भैंस चराने के बाद फिर घर आ जाना। फिर जैसे ही सुबह हुई और घर से छुपकर निकलना ,बस जैसे ही हमारे गुरु जी को पता चला कि आकाश आज फिर से पाठशाला नहीं आया तो दो - लड़के भेजना और हमारी पिटाई करना । मुझे तैरने का काफी सौंक था, स्कूल जाना भूल जाता था मगर यमुना नहीं पर प्रतिदिन जाना नहीं भूल पाता । कुछ दिन बाद हम भरतपुर चले जाते है । ये वो कदम था जहां हम पहली बार , कार बस ,ऊंची ,इमारतें , देखते है । फिर में मन ही मन सोचता हूं । ये दुनिया कितनी बड़ी है,
भरतपुर में मेरी मुलाकात एक नेक,लड़की नीलम से होती है। वो पड़ने में काफी तेज थी । वो हमसे बुद्धू बोलती थी, धीरे - धीरे हमने उससे बहुत कुछ सीख लिया, अंग्रेजी भाषा,में बात करना भी आसान सा लगने लगा,एक दिन ,नीलम और मुझ में थोड़ा झगड़ा सा हो जाता है, दो दिन बाद आचनक वो बोलती है कि ओए बुद्धू मुझे तुझसे सादी करनी है, मगर एक शर्त है।कक्षा १० में मुझसे ज्यादा नंबर लाने होने ,वो अपने पापा का फोन नंबर देती है , और बोलती है अब घर चला जाना ,और मन लगाकर पड़ना , में अपने गांव आया और सारी बात अपने, गुरु जी को बताई जो हिन्दी के आध्यपक थे, पहले तो हसे फिर उन्होंने मुझे घर ३ साल रखा में बही पड़ता, जब कक्षा १० के पेपर आग गए थे, अगले दिन सोमवार को हिंदी का पेपर था, तो गुरु जी ने मुझे बुलाया और बोले वो नंबर कहा है । में घर आया संदूक में से नंबर को निकाला और गुरु जी पास पहुंच गया। गुरु जी ने फोन मिलाया, फोन नीलम के हाथ में ही था। उसने मेरी आवाज ३साल बाद भी पहचान ली और बोली । शादी करेंगे मैने कहा हां , अंत में नीलम से ४ नंबर ज्यादा आते है , फिर हम मिलते है ,और शादी न करके और दोनों एक साथ,राजकीय iTi बृंदावन,मथुरा में हमारा सलेक्शन हो जाता है ,
     आकाश, बघेल ,मथुरा ,उत्तर प्रदेश।

लघुकथा आयोजन.. पाठशाला (आ. आरती गुप्ता जी)

#कलम ✍️बोलती है साहित्य समूह
#नमन मंच
#दो दिवसीय लेखन
#दिनांक- १५/०४/२०२२ से १६/०४/२०२२
# विधा- लघुकथा#
#विषय- पाठशाला
# दिन- शनिवार
🙏🙏🙏
सीमा कुछ दिनों से बहुत परेशान थी ,रह - रह कर उसे मोहन के प्रश्न कांटो की तरह चूभ रहे थे, पर करती भी, तो क्या करती? वह खुद भी अनपढ़ थी पाठशाला किसे कहते हैं? कम उम्र में ही सीमा की शादी रघु से हो गई ।रघु अक्सर काम के सिलसिले में बाहर ही रहता था ,उधर 1 साल में सीमा को एक प्यारा सा लड़का पैदा हुआ जो बिल्कुल कृष्ण के मनमोहक रूप की तरह लगता था 
सीमा ने उसका नाम भी मोहन ही रखा पर मोहन की तबीयत अक्सर खराब रहती थी डॉक्टरों को दिखाने पर उसे पता चला कि मोहन को मिर्गी की बीमारी है और यह मस्तिष्क में किसी गड़बड़ी के कारण होता है ,जिससे बार-बार दौरे पड़ते हैं ,डॉक्टरों ने साफ-साफ कहा की फिलहाल 10 वर्षों तक मोहन की देख भाल करने की ज्यादा आवश्यकता है, धीरे - धीरे बढ़ती उम्र के साथ मोहन की यह बीमारी भी ठीक हो जाएगी इसी वजह से सीमा ने मोहन का दाखिला स्कूल में नहीं करवाया ।
मोहन 6 वर्ष का हो चुका था अपने दोस्तों को स्कूल जाते एक साथ खेलते मस्ती करते देख उसके मन में भी पाठशाला जाने का विचार आया था और उसने इसी बारे में अपनी मां सीमा से बात की थी ,तभी से सीमा मोहन की तबीयत को लेकर ज्यादा ही चिंतित रहती थी।
कुछ दिनों बाद मोहन की मौसी रीता उसके घर आई मोहन ने अपनी मौसी से पूछा ?मौसी पाठशाला क्या होती है ? मौसी ने कहा बेटा पाठशाला वह पवित्र स्थान हैं ,जहां पर बहुत सारे बच्चे बिना किसी भेदभाव के एक ही छत के नीचे बैठकर एक साथ शिक्षा प्राप्त करते हैं , दूसरे शब्दों में पाठशाला को हम स्कूल भी कहते हैं ।
मोहन ने कहा, मौसी मुझे भी पाठशाला जाना है , मां को बोलो ना कि वह मुझे पाठशाला जाने दे।
दीदी क्या तुमने अभी तक मोहन का दाखिला स्कूल में नहीं करवाया ?सीमा तुम तो जानती हो ना रीता मोहन की तबीयत के बारे में ।
हो सकता है ,स्कूल जाने से, बच्चों के साथ खेल कूद करने से मोहन शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत बनेगा । शायद तुम ठीक कह रही हो तो हम कल ही गांव के स्कूल जाकर मोहन का दाखिला करवाएंगे तुम भी चलोगी रीता साथ में?
अगले दिन सुबह पाठशाला जाकर सीमा ने मोहन का दाखिला करवाया।अब मोहन भी बाकी बच्चों के साथ पाठशाला जाने लगा।

स्वरचित
आरती गुप्ता (अंतरा)
रायपुर छत्तीसगढ़

#लघुकथा_आयोजन..... पाठशाला (आ. अनिल मोदी जी)

कलम बोलती हे साहित्यकार मंच
तिथि 16 -04 -2022
विषय पाठशाला
विधा लघु कथा
हंसी खुशी भरा परिवार था, ना जाने ये क्या हुआ।
कोरोना की चपेट पिता का साया उठ गया।
माँ बेटा दो ही प्राणी, जीवन निर्वाह हो रहा।
चार घरो में काम कर बेटे के आने से पहले माँ घर की देहरी पर रहती खडी।
अधीर खड़ी है आज, मां देहरी पर, लाल मेरा आएगा।
गया है वह पाठशाला, पढ़ लिख कर वो आएगा।
मेरे सपनों का राजा है उम्मीद पे मेरे खरा उतरेगा, निश्चय ही सफलता पायेगा।
खूब पढ़ाऊंगी, होशियार बनाऊंगी,
दुनिया में रोशन नाम करेगा।
देश हित में काम करेगा, स्वदेशी स्वालंबन स्वच्छता का ख्याल करेगा।
वतन की खातिर जीना मरना, 
संस्कारों से ओतप्रोत बनेगा।‌
सपने बुनती, खड़ी देहरी, 
ना मालूम बेटा कब आया, घर के अंदर।
सपनों की दुनिया से बाहर निकली,
चूम लिया बेटे को अंक में भरकर।
लाल मेरा घर आया है,
 पहले हाथ मुंह धुलवाऊं।
खाना खिलाऊं,
फिर गृह कार्य करवाऊं।
पढ लिख अव्वल आये,
 ऐसा इंसान बनाऊं।
सारे जग का करे नेतृत्व, इतनी आभिलाशा चाहुं।

अनिल मोदी, चेन्नई

#लघुकथा_आयोजन... पाठशाला (आ. ममता यादव जी)

नमन मंच को 🙏🙇🙏
दिनांक : 16/04/2022
विधा : लघुकथा 
शीर्षक : "मेरी पाठशाला"

जीवन का सबसे अनमोल पल मेरी पाठशाला हुआ करती थी। पाठशाला को हम सब मंदिर के समान मानते थे। प्रतिदिन समय पर पाठशाला जाना मुझे बड़ा अच्छा लगता था। सबके साथ मिल-जुलकर पढ़ाई करना,रिसस में टिफिन झट से खतम करके दोस्तों के साथ कबड्डी खेलना बड़ा आनंददायक लगता था। रिसस में हम चार आने की दो मीठी चूरन और चार आने की दो काली चूरन खरीदकर चाटते थे। मुझे आज भी याद है कि मेरे पापा मुंबई से टेलीफोन पर मुझे अच्छे से पढाई करने और पाठशाला के सभी खेल-कूद में भाग लेने की हिदायत देते थे। गिल्ली डंडा मेरा सबसे पसंदीदा खेल था.....दादी के लाख मना करने और चिल्लाने के बावजूद भी मैं गांव के लड़कों के साथ गिल्ली डंडा खेलती थी। पाठशाला में सभी जाति-धर्म के बच्चों को समान दर्जा दिया जाता था। हम सब जमीन पर बोरिया बिछाकर बैठते थे। जमीन पर बहुत धूल मिट्टी रहती थी फिर भी हम प्राइमरी तक पीपल के पेड़ के छांव में बैठकर पढ़ते थे। संध्या पहर सूर्य के पश्चिम दिशा प्रस्थान होने पर हम सब वापस बोरिया-बस्तर लेकर पूर्व दिशा की ओर लाइन से बैठते थे। तब हम कलम या पेंसिल से नहीं बल्कि नरकट और स्याही से लिखते थे।कई मर्तबा तो स्याही की छींटे किसी के कपड़े पर चले जाने से छात्र या छात्रा रूठ जाया करते थे। मैं गुरुजी की प्रिय छात्रा थी। आज तारीख क्या है...... कौन सा दिन है........ हिंदी पुस्तक का कौन सा पाठ चालू है........ गणित में जोड़-घटाना,गुणा-भाग कहां तक हुआ है........सब मैं ही बताती थी। ऐसा नहीं कि गुरुजी बाकी सभी से नहीं पूछते थे....सबसे पूछ लेने के बाद अंत में मुझसे पूछते थे। गुरुजी प्रेम से हम सभी छात्राओं को देवी और भवानी कहकर बुलाते थे।
              हमारे गुरुजी बहुत बड़े दयावान थे.... वे कभी छात्राओं को अपने पवित्र हाथों या अपनी छड़ी से दंड नहीं देते थे। जब किसी प्रश्न का उत्तर एक छात्रा न दे और दूसरी दे दे तब उस दूसरी छात्रा से पहली वाली को चार मुक्का कसकर मारने का आदेश देते थे और जिस दिन जब किसी भी प्रश्न का कोई भी छात्रा उत्तर नहीं दे पाती थी तब मुझे ही सबको मुक्का मारना पड़ता था। मुक्का मारते-मारते मेरा तो हाथ दुखने लगता था तब एक साथ चालीस-पैंतालीस लड़कियों को मुक्का मारना कोई खाने वाली बात थी? खुशी की बात ये है कि जब किसी से मेरा अनबन हो जाता था न.... तब मैं उसे चार मुक्के को आठ के बराबर जोर से कसकर मारती थी और इससे मैं अपनी पूरी भड़ास निकाल लेती थी। अगर हम धीरे से किसी को मुक्का मारते थे तो गुरुजी बोलते थे कि.....जोर से मारो देवी नहीं तो तुम मेरी छड़ी से मार खाओगी। पता है कबड्डी खेलते समय मेरी विरोधी टीम को मैं सांस टूटने पर भी खूब जमकर दबाए रखती थी। गुरूजी ने एक और अनोखा नियम बनाया था...... यदि कोई दो छात्रा पाठशाला में गुरूजी के गैर मौजूदगी में किसी बात पर लड़ाई झगड़ा किया हो तो.......गुरूजी उन दोनों की चोटी एक-दूसरे से कसकर बांध देते थे । छात्रों को गृह कार्य न करने व मार-झगड़ा करने पर उनको मुर्गा बनवाते थे या फिर एक टांग पर धूप में खड़े रहने का दंड देते थे। पाठशाला की घंटी बजते ही सब बच्चे हंसी - खुशी बोरिया-बस्तर लेकर अपने-अपने घर चले जाते थे। पाठशाला में हर शनिवार को चौरसिया गुरुजी चित्रकला बनवाते थे और गीत-भजन आदि करवाते थे। उन दिनों मुझे घर के सदस्यों से और पाठशाला में गुरूजनो से बड़ा प्यार मिलता था। आज भी उन दिनों की सुनहरी स्मृतियां मेरे हृदय को हजार मन खुशियों से भर देती है।

ममता यादव ✍️ मुंबई
स्वरचित मौलिक रचना

#लघुकथा_आयोजन.. पाठशाला (आ प्रीति शर्मा"पूर्णिमा" ज़ी)

जय शारदे माँ 🙏🙏
नमनमंच संचालक
कलमबोलतीहै साहित्य समूह।
विषय - पाठशाला।
विधा - लघुकथा।
स्वरचित।

पच्चीस वर्षीय रेखा चार बच्चों की मां थी और कोठियों में झाड़ू पौंछा,बर्तन करके अपना गुजारा कररही थी।उसने रीमा जी की कोठी में भी काम पकड़ा हुआ था।रीमा स्वयं अध्यापिका थी और रेखा के काम और व्यवहार से संतुष्ट भी अतः वह उसे हमेशा अच्छी सलाह दिया करतीं। 
एक दिन रीमा ने देखा रेखा अपनी नौ दस साल की बेटी को अपने साथ लेकर आई है। 
 रीमा जी ने अचानक से पूछ लिया रेखा अपनी बेटी को नहीं पढ़ाती क्या.? 
कहां आंटी, मैं काम पर आ जाती हूं मेरे पति भी काम पर चले जाते हैं और यह अपने छोटे भाईयों की देखभाल करती है।
यह तो गलत बात है रेखा..पढने की उम्र में तू इसे घर में काम ले रही है। तू कितनी पढी है..? 
मैं तो आंटी पढ़ी नहीं किसी ने पढ़ाया ही नहीं,कुछ निराशा भरे स्वर में रेखा बोली। 
तुम पढ़ नहीं पाई तो क्या हुआ,अपनी बेटी को तो पढ़ा सकती है ना..
वो झुग्गी पर भी कोई कोई कभी आते हैं आंटी तो शाम को ये चली जाती है। वो टाफी बगैरह भी देते हैं... खुशी होते हुये रेखा बोली। 
रीमा उसकी नादानी पर मुस्कराई। 
वो तो नियमित पढाई नहीं हुई ना। तुझे पता है सरकारी स्कूलों में कितनी सुविधाएं हैं।दोपहर का खाना,किताब कापी, ड्रेस सब कुछ तो मिलता है।और खाता खुलवाकर खाते में हर महीने पैसे भी। तू इसका दाखिला करा दे... रीमा उसे पढाने के फायदे समझाने लगी। 
अच्छा आंटी इतना कुछ मिलता है...सुनकर हैरानी से रेखा बोली।
और क्या... ऊपर से तुझे डर भी नहीं रहेगा कि झुग्गी झोंपड़ी में तेरी बेटी अकेली है।
रीमा ने उसकी बेटी नेहा से पूछा, 
तुझे पढ़ना अच्छा लगता है..? 
हां आंटी... कभी-कभी जब झुग्गी में पढ़ाने आते हैं तो मैं भी में बैठ जाती हूँ। 
तुझे कुछ लिखन आता है..? 
हां 
तो दिखा। 
नेहा ने वर्णमाला लिखकर दिखाई हालांकि उसमें कुछ गलतियां थीं। 
तब रीमा ने रेखा को समझाया, 
तू नहीं पढी,इसका मतलब यह तो नहीं अपने बच्चों को भी नहीं पढायेगी।देख आज के समय में पढ़ना लिखना बहुत जरूरी है।किसी तरह अगर तेरे बच्चे दसवीं बारहवीं कर गये तो इनका भविष्य बन सकता है।छोटी-मोटी नौकरी मिल सकती है नहीं तो प्राइवेट नौकरियां भी बहुत हैं।कम से कम मजदूरी तो नहीं करेंगे।अगर यह पढ़ लिख जाएंगे तो आगे अपने बच्चों को भी पढ़ायेंगे नयी राहदिखाएंगे।
बात रेखा की समझ में आई पर आजकल करके टालती रही तब रीमा को लगा ये काम तो खुद करना होगा। रेखा शायद स्कूल जाने में झिझक रही है और अगले दिन ही रेखा रीमा के साथ स्कूल गयी।
 रीमा ने वहां के हेडमास्टर को अपना परिचय दिया और बात की और फिर रेखा के बेटी की उम्र देखकर दूसरी कक्षा में और छोटे बेटे का प्ले में दाखिला वहां करा दिया। 
अब रेखा ने अपनी बेटी का ट्यूशन भी लगा दिया है ताकि वह बाकी बच्चों के सामने कमजोर ना रहे। एक मैडम रीमा के पड़ोस में ही रहती है और उसने रेखा से ट्यूशन फीस लेने से भी मना कर दिया।
  रेखा के बच्चों को भविष्य मिला है और उसने रीमा से वायदा किया है कि अगले साल जब सबसे छोटा बेटा चार साल का हो जायेगा तब उन दोनों बेटों को भी स्कूल में भेजेगी।
   रीमा का सोचना है कि जीवन ही सच्ची पाठशाला है और शिक्षा के प्रति जागरूकता फैलाना ही पाठ ग्रहण करना है।अगर हम पाठशाला में पढ़ लिख कर भी किसी के काम नहीं आए तो क्या फायदा..? ज्ञान की रोशनी दूसरों को पहुंचाना ही पाठशाला अर्थ को सार्थक करता है। 

प्रीति शर्मा"पूर्णिमा"
16/04/20226

#लघुकथा_लेखन... पाठशाला (आ. आचार्या नीरू शर्मा जी)

#कलम बोलती है साहित्य समूह
#दैनिक विषय क्रमांक - 424
#दिनांक - 16.04.2022
#वार - शनिवार 
#विषय - पाठशाला
#विधा - कहानी
रामचंद्र और उनकी पत्नी नीर विनम्र,सरल,खुशमिज़ाज स्वभाव के थे। दोनों पति - पत्नी धार्मिक थे। जो भी कभी उनके पास सहायता के लिए आता वह कभी खाली हाथ नहीं जाता था,पर रामचंद्र हमेशा से अमीर नहीं थे। उन्होंने मुफ़लिसी का वह दौर जिया था जिसमें उनके पास कई-कई दिन खाने का जुगाड़ नहीं हो पाता था। वह स्वभाव से ईमानदार और मेहनती था,पत्नी नीर भी संतोष स्वभाव की थीं । <br>
रामचंद्र ने खूब मेहनत करके व्यापार में उन्नति पाई थी। अब जब इनके ऊपर लक्ष्मी की कृपा है तो वह किसी भी जरूरतमंद की सहायता से पीछे नहीं हटते । दोनों का एक ही पुत्र सूरज था जिसे वह बेहद प्रेम करते थे । जैसे - जैसे वह बड़ा हो रहा था उसके स्वभाव में अकड़ आने लगी । वह अपने मित्रों में अमीर होने का रूआब दिखाने लगा। जब रामचंद्र और उनकी पत्नी को यह पता चला तो उन्होंने उसे बहुत समझाया । वह उनके सामने तो बात मान लेता पर पीछे से सभी के साथ रौब से व्यवहार करता। 
रामचंद्र ने काफी सोच - समझकर पत्नी नीर से कुछ सलाह की। नीर ने पति की बात पर सहमति जताई । दो दिन बाद रामचंद्र ने पत्नी और बेटे को बुलाकर कहा - हमें व्यापार में काफी घाटा हो गया है और सब कुछ बेचना पड़ेगा, तो तुम दोनों सामान बाँधकर गाँव चले जाओ, मैं अगले हफ्ते तक सबके पैसों को देकर आ जाऊँगा। सूरज उदास हो गया क्योंकि अब उसे गाँव के स्कूल में पढ़ाई करनी पड़ेगी और जिन दोस्तों पर अपनी अमीरी का रौब झाड़ता था वे सब उस पर हँसेंगे। 
नीर ने बेटे सूरज के साथ गाँव आकर छोटे से घर में नए दिन की शुरूआत की। सूरज को रातभर जमीन पर सोना पड़ा और माँ ने सुबह जगाकर उसे पास के कुएँ से पानी लाने को कहा। सूरज ने पहले कभी यह काम किया नहीं था उसे तो बड़े से बाथरूम में सेवकों द्वारा पानी और सभी चीजें मिल जाती थीं । खाने के लिए अलग - अलग पकवान और घूमने के लिए गाड़ी थी। सूरज दुःखी था। 
माँ ने उसे अपने साथ ले जाकर कुएँ से पानी लेना सिखाया और कहा कल से खुद लेकर आना नहीं तो खाना समय से नहीं बन पाएगा और तुम्हें भी बिना भोजन के स्कूल जाना पड़ेगा । यहाँ तो मास्टरजी भी गर्म स्वभाव के हैं नीर ने बताया। सूरज जैसे - तैसे स्कूल जाने लगा और माँ की सहायता करने लगा । स्कूल से आकर खेत में नीर की सहायता करता। अब उसका स्वभाव नम्र हो चुका था और हर काम वह खुद से करने लगा था।
दो हफ्ते बाद रामचंद्र गाँव आया और उसने सूरज को देखा। पत्नी ने उन्हें सूरज के व्यवहार परिवर्तन की बात बताई।अगले दिन रामचंद्र ने नीर और सूरज से कहा कि अब हम वापस शहर जाकर रहेंगे। सूरज हैरान था । उसने पिता से कहा कि अब तो उनके पास वहाँ कुछ भी नहीं है, वे वहाँ कहाँ रहेंगे? रामचंद्र ने मुस्कुराकर उसे बताया कि सूरज तुम पढ़ने - लिखने में तो होशियार हो, पर तुम्हारे अंदर घमंड और अहंकार आ गया था, इसलिए जीवन की सच्चाई दिखाने और तुम्हें सही राह पर लाने के लिए हमने यह राह अपनाई । आज तुमने जीवन की पाठशाला का जो सबक सीखा है उससे तुम्हारा व्यवहार ही निर्मल नहीं हुआ अपितु तुमने मानवता और इंसानियत भी सीख ली है और यह तुम्हारे जीवन की पूँजी है। सूरज ने हाथ जोड़कर माँ और पिता से माफी माँगी और वादा किया वह हमेशा अच्छाई और सच्चाई की राह पर चलेगा और कभी कोई भेदभाव नहीं करेगा। रामचंद्र और नीर आज बेहद खुश थे। 
रचना - स्वरचित / मौलिक 
रचयिता - आचार्या नीरू शर्मा
स्थान - कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश ।

#लघुकथा_आयोजन.. पाठशाला (आ. सियाराम शर्मा बोधिपैगाम जी)

#कलम_बोलती_है_साहित्य_समूह  
#दो_दिवसीय_लेखन
#दैनिकविषयक्रमांक-424
विषय : पाठशाला
विधा: लघुकथा
दिनांक- 16.04.2022
    दिन -शनिवार
        
                  पाठशाला: ' छुट्टी बंद '

पाठशाला जीवन की स्मृतियों में प्रमुखता से छाई रहती है। खट्टी मीठी यादें, मुलाकातें ,दोस्ती ,झगड़े ,शरारतें सब कुछ ! हमेशा की तरह हमारे ' गट्टन गुरु ' , हाँ उन्हें हम इसी नाम से आपस में पुकारते, अलग अलग नाम रखे जाते ,शायद आज भी ऐसा ही होता है। संस्कृत का कालांश अंत में ही आता और आते ही वे ' रुप ' याद करवाने, सुनने का काम शुरू करदेते । एक ही उनकी शर्त होती, " जो रुप सुना देगा उसकी छुट्टी पर जो नहीं सुना पाया ,उसकी छुट्टी बंद ! "
अब यही सबसे ज्यादा मुसीबत और घवराहट का कारण होती। बहुत मेहनत से दोहराते ,बारबार याद करते ,सुनाते पर फिर भी कहीं न कहीं गलती हो ही जाती । 
राम:-रामौ - रामा:/ रामम्-रामौ- रामान्/ रामेण-रामाभ्याम्-रामै: आदि ..कहीं पर विसर्ग के प्रयोग या हलन्त के प्रयोग ,उच्चारण में गलती कर बैठते या तृतीय विभक्ति के स्थान पर पंचमी विभक्ति का पाठ बोल देते। बस फिर क्या छुट्टी बंद। यह सबसे बड़ी सजा होती । 
सबसे ज्यादा तकलीफ जब होती जब सब साथी तो.सुनाकर घंटी बजते ही उड़नछू हो गए ,रह गये.हमारे जैसे दो-तीन । अब गुरुजी तो बहीं बैठे रहते। बस मन ही मन सब कोसते रहते :
' इन्हें तो कहीं जाना है, नहीं ,इनका न कोई घर ,न ठिकाना !' क्योंकि वे पाठशाला में ही एक कमरे में रहते थे। अगर फिर कोई बातें करता, या लघुशंका आदि की छुट्टी माँगता तो उसे बैंच पर खड़े होने की सजा सुनाई जाती । उस समय क्या हाल होता, वस हम ही जानते हैं, पेट में चूहे कूदते पर उन्हें भी अधिक कूदने की इजाजत नहीं होती, मन मारकर बैठे या खड़े रहते।
बहरहाल आज हमारे वही ' गट्टन गुरुजी ' बहुत याद आते हैं, उस समय की उनकी सख्ती, अनुशासन का फल है कि आज इस उम्र में भी धातुरुप ,अलंकार आदि अच्छे से याद हैं,पोते-पोतियों को यह किस्सा सुनाया तो उन्हें बहुत आश्चर्य होता है। आज हिन्दी ,संस्कृत भाषाओं का अध्ययन, अध्यापन रुचिकर नहीं लगता, बच्चे और अभिभावकों को भी अंग्रेजी भाषा में रुचि ज्यादा है। 

स्वरचित-मौलिक रचना
सियाराम शर्मा बोधिपैगाम
डीडवाना, नागौर, राजस्थान

#लघुकथा_आयोजन... पाठशाला (आ. सुमन तिवारी जी)

#कलम✍🏻बोलती_है_साहित्य_समूह  #दो_दिवसीय_लेखन
#दैनिक_विषय_क्रमांक : 424
#विषय :  पाठशाला
#विधा : लघुकथा
#दिनांक : 16/04/2022 ,  बृहस्पतिवार
समीक्षार्थ
______________________________

आज प्यारेलाल की पत्नी सीमा दो दिन बाद काम पर लौटी । मुँह सूजा हुआ, जगह- जगह चोट के निशान। 
मेरे पूछने पर बोली---क्या बताऊँ मैडम, वही रोज का पैसों का लफड़ा।  आपके दिए हुए पैसे बेटी की पाठशाला की फीस के लिए रखे थे वह भी चोरी से ले गया और दारू पीकर आ गया, सुबह उठकर फिर रुपए माँगने लगा न देने पर मारपीट करने लगा। 

    लड़की भी सहमी डरी हुई रहती है पाठशाला भी नहीं जाना चाहती। मेरे कहने पर दूसरे दिन वह बेटी अनीता को मेरे पास लेकर आई, वह रोते हुए बोली मैडम पापा इतनी पी लेते हैं कि अपनी भी सुध नहीं रहती, रोज की गाली गलौज, मारपीट से सब लोग हम पर हँसते और ताने मारते हैं। मुझे बाहर निकलने में भी शर्म आती है। मैं पाठशाला नहीं जाना चाहती
वहाँ बच्चे चिढ़ाते हैं। मैंने उसे समझाया और किसी दूसरे स्कूल में प्रवेश दिला दिया जहाँ लड़कियों के लिए छात्रावास की सुविधा थी। 

           आज अनीता बहुत खुश है उसने दो वर्ष छात्रावास में रहकर खूब मेहनत की और अच्छे अंकों से हाईस्कूल कर लिया अब वह आगे की पढ़ाई जारी रखना चाहती है और एक सफल अध्यापिका बन कर अपनी तरह की लड़कियों की  जिंदगी सँवारना चाहती है।अनीता की माँ मेरे पैर छूते हुए बोली
मैडम आपने मुझ जैसी एक और सीमा की जिंदगी बरबाद होने से बचा ली। 

                    स्वरचित मौलिक रचना
              सुमन तिवारी, देहरादून उत्तराखंड

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2022

#लघुकथा_आयोजन.. पाठशाला (आ. मंजु माथुर जी)

जय मां शारदा  
मंच को नमन  
दिनांक 15 अप्रैल 2021
 विषय पाठशाला 
विधा लघु कथा
स्वरचित एवं मौलिक
रश्मि के पास विद्या का फोन आया ।विद्या चकित रह गई। आज इतने दिन बाद सखी का फोन क्यों आया ।दोनों सखियां पुरानी यादों में खो गई  विद्या ने पूछा अरे तुझे मेरी याद कैसे आ गई तो रश्मि ने कहा आज मैं यहां गांव आई हुई हूं ।मार्केटिंग करने जा रही थी रास्ते में अपनी पाठशाला मिली ।पुरानी यादें ताजा हो गई और सबसे ज्यादा याद तुम्हारी आई आकर तुम्हें फोन कर रही हूं।
हां उस समय का तो पाठशाला का अनुभव बहुत शानदार है। याद है हम लोग नाव में बैठकर स्कूल जाया करते थे।
 सभी जाति समुदाय के लड़के और लड़कियां होते थे पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं था ।अपन कितनी मस्ती करते थे और सच कहूं तो उस नाव की यात्रा में साथियों द्वारा लाए गए बाजरे की रोटी राबड़ी ,लहसुन की चटनी कभी भुलाए नहीं भूलेगी ।और नाव से उतरने के बाद साथी अपने खेतों से ज्वार लाते थे और उन बालियों को भून कर जो ज्वार निकलती थी उसको वे लोग माखन मिश्री कहते थे ।वास्तव में वह माखन मिश्री  कितनी मिठास भरी होती थी ।वह मिठास तो उसमें ही थी पर साथियों के प्रेम की मिठास उसे दुगना कर देती थी।
जिसका होमवर्क अधूरा होता वहीं बैठ कर सब मिलकर एक दूसरे का होमवर्क पूरा करवाते थे।
विद्या की बात सुनकर रश्मि ने कहा हां अपनी पाठशाला कितनी अच्छी थी। केवल पढ़ाई ही नहीं पी टी खेलकूद सिलाई कढ़ाई सभी बातें याद आती है उस पाठशाला को हम कभी नहीं भूल सकते हमारी नींव वही तैयार हुई थी।
मनु रोता हुआ आया मम्मी भूख लगी है खाना दो। तब विद्या ने कहा अच्छा चलती हूं आज बहुत अच्छा लगा अपने बचपन की अपनी पाठशाला की याद करके।
 मंजु माथुर अजमेर राजस्थान

#लघुकथा_आयोजन.. पाठशाला (आ. शोभा वर्मा ज़ी)

(7)
जय मां शारदे। 
कलम✍ बोलती है साहित्य समूह।
क्रमांक--424
विषय--"पाठशाला"।
विधा--"लघुकथा"।
दिनांक--"१५|०४|२२,शुक्रवार। 
रचियता--"शोभा वर्मा"
           देहरादून, उत्तराखंड।
            (समीक्षार्थ प्रस्तुति)

       लघुकथा--"पाठशाला"।

"और आज की अंतर्विद्यालय सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता की ट्राफी की विजेता हैं "श्री गुरु राम राय इंटर कालेज"की "सौम्या अग्रवाल",। प्रिंसिपल वर्मा की इस उद्घोषणा से सभागार तालियों की गङगङाहट से गूंज उठा। 
    यह सुनकर सौम्या जीत की खुशी में आंखों में आंसू भरकर हाल में बैठी छात्राओं और प्रतिभागियों के बीच से अपना रास्ता बनाती हुई मंच पर पहुँची उसने प्रिंसीपल वर्मा से ट्राफी लेकर उनका आशीर्वाद लिया। 
आज उसका सीना गर्व से गौरवान्वित
हो रहा था,किन्तु उसकी आंखें एक बार 
फिर आंसूओं से भर आयीं और उस दिनका पूरा घटनाक्रम उसकी आंखों के सामने घूम गया।
     विद्यालय में "सामान्य ज्ञान" प्रतियोगिता के लिए प्रतिभागियों का चयन हो रह था।वह भी प्रतिभागियों की कतार में खङी थी,अपना नंबर आते ही उसने फार्म देने के लिए कहा तो शिक्षिका ने कहा," तुम इस प्रतियोगिता को जीत नहीं पाओगी, बङे-बङे अंग्रेज़ी माध्यम स्कूलों के विद्यार्थी प्रतिभाग कर रहे हैं,तुम तो" हिन्दीपाठशाला" (HindiMedium) से पढ रही हो, तुम इसमें कैसे प्रतिभाग कर सकती हो"? किन्तु उसके साथियों के बार बार अनुनय करने पर शिक्षिका ने उसे फार्म दे दिया।
एक सप्ताह बाद यह परीक्षा होनी थी,सौम्या स्कूल से आकर बस्ती में बने घर में जहाँ लाइट भी नहीं थी,वहां प्रतिदिन प्रतियोगिता की तैयारी करती।प्रतियोगिता के दिन उसने सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता के सभी राउंड में विजय प्राप्त कर ली,और अन्य प्रतिभागियों 
के मुकाबले सर्वश्रेष्ठ रही थी।
   आज उसे अपनी "हिन्दी पाठशाला " 
की शिक्षा पर गर्व हो रहा था। 
सच ही तो है,ज्ञान तो कहीं से भी,कैसे भी प्राप्त किया जा सकता है,उसके लिए किसी शोहरत वाले विद्यालय की आवश्यकता नहीं होती है।
               ✝︎✝︎✝︎✝︎✝︎✝︎✝︎✝︎
स्वरचित मौलिक रचना। 
सर्वाधिकार सुरक्षित ©️®️

#लघुकथा_आयोजन.. पाठशाला (आ. दीपनारायण झा'दीपक' जी )

🙏जय माॅं शारदे 🙏
💐नमन कलम बोलती है साहित्य समूह💐
#विषय-पाठशाला
#विधा-लघुकथा
#विषय क्रमांक-४२४
#दिनांक-१५-०४-२०२२
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#पाठशाला
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काश! बचपन में ही पाठशाला का सही अर्थ समझ पाता कि पाठशाला पढ़ने का घर होता है। समझने में बहुत देर हो गई। वाकई रोमांचित हो उठता हूं बचपन के दिनों की पाठशाला को याद कर।रोम -रोम खुशी से झूम उठता है बचपन की पाठशाला को याद कर।
बचपन में मेरी पारिवारिक स्थिति अच्छी थी। घरेलू काम के लिए भी कई लोग थे। मिश्रित परिवार था।मेरे दादा जी अच्छे किसान थे। पिताजी सहायक शिक्षक, चाचा जी सहायक शिक्षक थे। समय की मांग के अनुरूप मेरा नामांकन अंचल के एकमात्र अंग्रेजी माध्यम स्कूल बाल भारती में करा दी गई।बाल भारती विद्यालय पांचवीं कक्षा तक था और जिसने भी पांचवीं कक्षा तक पढ़ाई सही ढंग से की आज वो सभी अधिकांश अच्छे पद पर आसीन हैं।
पुनः राजकीय मध्य एवं उच्च विद्यालय सारवां में नामांकन हुआ। पुनः देवघर महाविद्यालय देवघर से पढ़ाई करने का अवसर मिला।
शुरुआती दिनों में विद्यालय जाना अच्छा नहीं लगता था क्योंकि घर से तीन किलोमीटर दूर दादा जी के कंधे पर एवं साइकिल पर विद्यालय जाना होता था। फिर विद्यालय में खेलकूद के दौरान कई साथी बन गए। पाठशाला जाने में इतना मन लगने लगा कि अवकाश होने पर दुःख होता था। फिर गांव के सारे बच्चे एक साथ एक दुसरे को बुलाते हुए, खेलते-कूदते हुए विद्यालय जाते थे। दादा जी भले ही किसान थे मगर पढ़ाई के मामले में काफी सख्त थे। लम्बी कदकाठी बड़ी-बड़ी आंखें, गठीला शरीर भारी-भरकम आवाज की एक आवाज से मिलों भर से लोग दौड़े चले आते थे।
मुझे याद है मैं पहली कक्षा में था। जनवरी का महिना था मुझे हिन्दी की नई पुस्तक मिली। बिना उठे सभी कविताएं एवं कहानियों को पढ़ डाला। एवं एक सप्ताह में सभी कंठस्थ हो गया। गांव में रहने के बावजूद भी अनावश्यक रूप से इधर उधर घुमने की आजादी नहीं थी। खेल- कूद के लिए शाम का समय निर्धारित था।शाम के समय कबड्डी, गिल्ली डंडा,आदि खेला करते थे।
बीते दो दशकों से सहायक शिक्षक के रूप में कार्य करते हुए गर्वान्वित हूॅं कि जिन-जिन शिक्षण संस्थानों से पठन -पाठन किया वहां-वहां अध्ययन-अध्यापन, परीक्षण, पर्यवेक्षण करने का अवसर मिलता रहा है।आज विद्यालय के बच्चों में अपना बचपन ढूंढने का प्रयास करता हूं। उनके साथ सभी तुतलाकर बोलता हूं, साथ -साथ खेलता हूं, गाता-बजाता हूॅं, शैक्षणिक भ्रमण करता हूॅं एवं शिक्षण के साथ- साथ अन्य सभी गतिविधियों को करता हूं और अपने बचपन को याद करता हूॅं।आज शिक्षा का स्वरूप भी बदल गया है। पहले विद्यालय का मतलब होता था केवल पढ़ाई करने जाना किन्तु आज शिक्षा बहुत व्यापक रूप ले चुकी है बच्चों के अंदर की सभी प्रतिभावों को उजागर किया जाता है एवं अपने रुचि के अनुसार आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।
और अधिक विस्तृत न करते हुए अंत में इतना ही कहना चाहता हूॅं कि"बचपन का वो सफर था सुहाना दोस्तों,अब तो वो भी लगने लगे बचकाना दोस्तों।

दीपनारायण झा'दीपक'
देवघर झारखंड

#लघुकथा_आयोजन..... पाठशाला (आ. राजेन्द्र कुमार राज जी)

"नमन माँ शारदे"
विषय-पाठशाला
विषय क्रमांक-424
दिनांक-15/4/2022
   ✍️लघुकथा
💐💐💐💐💐💐💐💐
प्राइमरी स्कूल की उच्च कक्षा उतीर्ण कर T C प्राप्त करने के बाद राजकीय संस्कृत विद्यालय में कक्षा 6 में प्रवेश के समय मेरी आयु 8 वर्ष ही थी।
मुझे आज भी याद है रास्ते में गांव का ही एक व्यक्ति जो मेरे से बहुत बड़ा है, ने मुझसे पूछा क्या करता है बे? मैंने कहा कक्षा6 में पढ़ता हूं। तो उसने मेरी उम्र व कद को देखकर कुछ अपशब्द कहे और कहा देखते हैं क्या? करेगा पढ़ कर।
उसी दिन मैंने मन में ठान ली पढ़ लिखकर इसे कुछ करके दिखाना है, घर की आर्थिक स्थिति कमजोर होने के कारण मजदूरी भी करनी पड़ती थी।
पर वो बात एक टीस बनकर मेरे मन में चुभती रहती थी।
पढ़ने का समय कम ही मिलता था और न ही इतना हमारे यहां पढ़ाई को अधिक महत्व दिया जाता था पर वो बात रह रहकर चुभती रहती थी। तो रात्री को पढ़ने के लिए समय निकालता और अध्ययन किया करता था।
समय बीतता गया पाठशाला में अध्ययन के साथ-साथ उसके द्वारा किया गया अपमान कुछ करने के लिए मजबूर करता रहा और उसकी बदौलत आज में सरकारी सेवा में कार्य कर रहा हूँ।
आज भी वो व्यक्ति जब भी मुझे कहीं मिलता है तो उसकी कहि बात याद आती है, मुझे नहीं पता उसको वो बात याद है या नहीं पर मुझे आज भी याद है और में तो उसे अपना मार्गदर्शक मानकर नमन, प्रणाम करता हूँ पता नहीं वो चुभने वाली बात अगर मुझे नहीं कहता तो इस मुकाम पर पहुँचता या कहीं मजदूरी करता रहता।

स्वरचित व मौलिक, स्वगठित भी।
राजेन्द्र कुमार राज
श्रीमाधोपुर, सीकर
राजस्थान

#लघुकथा_आयोजन.. पाठशाला (आ. सुमन तिवारी जी)

#कलम✍🏻बोलती_है_साहित्य_समूह #दो_दिवसीय_लेखन
#दैनिक_विषय_क्रमांक : 424
#विषय : पाठशाला
#विधा : लघुकथा
#दिनांक : 15/04/2022 , बुधवार
समीक्षार्थ
________________________
       मेरा बचपन पिथौरागढ की सुंदर पर्वतीय नगरी में बीता। पिताजी की पोस्टिंग तीन-तीन वर्ष में होती रहती थी। उस समय पिथौरागढ में अंग्रेजी स्कूल नहीं थे, बस एक सरस्वती शिशु मंदिर था अंग्रेजी स्कूल के नाम पर। अन्य एक दो सरकारी स्कूल भी थे। मैंने मुनाकोट ब्लॉक के प्राइमरी पाठशाला में प्रवेश लिया। सरकारी पाठशाला एकदम आश्रम पद्धति की होती थी। पेड़ के नीचे जमीन पर दरी बिछाकर बच्चे बैठते और गुरु जी श्यामपट पर लिख कर समझाते थे। छटी कक्षा तक तो हमने पतली सरकंडे की कलम व स्याही से लिखा, लेख अच्छा न होने पर स्केल से उल्टे हाथ पर गुरु जी मारते क्या मजाल कि कोई उफ़ करे, लिखावट मोती सी चमकती थी। कक्षा में आज के पब्लिक स्कूल की तरह भीड़ नहीं होती थी। मेरी पाँचवी कक्षा में तो कुल मिलाकर हम पाँच बच्चे थे, और मैं अकेली लड़की।

            प्रार्थना सभा में ईश्वर प्रार्थना के साथ ही सदाचार की बातें बताई जातीं और 15- 16 मिनट शारीरिक व्यायाम के बाद ही हम अपनी कक्षा में जाते थे। सरकारी स्कूल में आज के पब्लिक स्कूल की तरह बस्तों का बोझ नहीं होता था। मुख्य विषय हिंदी, गणित, इतिहास- भूगोल, और विज्ञान होते थे। हमारे गुरु जी हमें क्लास में ही बहुत अच्छा पढ़ाते थे। ट्यूशन का नाम कोई जानता ही नहीं था। 

        मध्यांतर में नाश्ते में हमें उबले चने, आलू की चाट, मिल्क पावडर आदि आदि मिलता था, जिसका स्वाद मैं आज तक नहीं भूली। आखिरी पीरियड में हमसब प्रार्थना सभा में एकत्रित होते एक बच्चा सामने खड़ा होकर गिनती ,पहाड़े व हिंदी की कविताएँ बोलता हमसब उसे दोहराते थे। आज तक वह सब मुझे याद है। 

          तीन साल बाद पिताजी का तबादला दूसरे ब्लॉक में होगया। G G I C में मुझे छटी कक्षा में प्रवेश मिला, अब दरी की जगह बैंच और मेज में बैठ कर हम स्वयं को राजा समझने लगे। हर वर्ग के बच्चे पढ़ते कोई भेदभाव नहीं था। मुझे आज भी अपने सरकारी स्कूल याद आते हैं जहाँ न कोई दिखावा न कोई टीम टाम, बस पढ़ना, खेल कूद, बागवानी और सिलाई कढ़ाई। छटी कक्षा में आकर ही अंग्रेजी विषय पढ़ा, पर व्याकरण की बुनियाद इतनी अच्छी कि शहर के प्रतिष्ठित अंग्रेजी स्कूल में शिक्षण का अवसर मिला जहाँ लगभग 30-32 वर्ष विभागाध्याक्षा रही। यह आत्मविश्वास और हुनर सरकारी स्कूल की ही देन है। मुझे गर्व है कि मैं सरकारी स्कूल में पढ़ी हूँ और अंग्रेजी स्कूल के बच्चों को पढ़ाया। 

                    स्वरचित मौलिक रचना
              सुमन तिवारी, देहरादून उत्तराखंड

#लघुकथा_आयोजन... पाठशाला (आ. राजीव रावत जी)

#कलम _बोलती_ है
#विषय क्रमांक - 424
#विषय - पाठशाला

पाठशाला - -लघु कथा
              राजीव रावत
             
       रमुआ के पिता एक छोटे किसान थे, दो बर्षों से बारिश न होने कारण मजदूरी कर अपने परिवार का भरण पोषण कर रहे थे। वह चाहते थे कि उनका बेटा कुछ पढ़ लिख जाये तो इस फटे आल जिंदगी से छुटकारा मिले। वैसे रमुआ पढ़ने तीव्र बुद्धि का था लेकिन नयी किताबें खरीदने के लिए और नदी पार करके दूसरे गांव में स्कूल जाने के लिए पैसे नहीं थे। इसलिए वह रोज सुबह सुबह जल्दी जाकर नाव बुजुर्ग नाविक का नाव खैने में सहायता करता और उसके एवज में वह फ्री में नाव से स्कूल जाता।
                स्कूल में उसके गांव के जमीदार का लड़का भी पढ़ता था। रमुआ रास्ते में नावं चलाते चलाते जमीदार के लड़के की किताबों से पढ़ भी लिया करता था। स्कूल मे इम्तिहान के बाद जब रजिल्ट की घोषणा हुई तो अध्यापक ने जमीदार के लड़के को प्रथम घोषित किया और रमुआ फेल हो गया था।
                उस दिन रमुआ बहुत उदास था क्योंकि उसने अपने सारे पेपरों में सही जबाव लिखे थे। वह चुपचाप नांव पर आ कर बैठ गया। जब नांव भर गयी तो जमींदार का लड़का और उसके दोस्त नांव पर मस्ती कर रहे थे और रमुआ उदास बैठा नांव चला रहा था, घर पर बाबू जी को क्या जबाव देगा?
                अचानक तेजी से हवायें चलनें लगी और नांव डोलने लगी, लाख कोशिशों के बाद भी नांव पलट गयी। सभी पानी में डूबने लगे। अब रमुआ तेजी से तैर कर डूबते जमीदार के बच्चे सहित बारी बारी से कई लोगों को बचा लाया और अंत में स्वयं बेहोश होकर किनारे पर गिर गया।
                उस दिन शाम जमीदार ने अपने यहां गांव की मीटिंग बुलाई और अध्यापक जी सर झुकाये खड़े थे क्योंकि जमीदार जी के लड़के ने सच बता दिया था कि रमुआ की परीक्षा कापियों से अदला-बदली कर दी गयी थी। तब जमीदार ने रमुआ को गांव के सामने न केवल पास घोषित किया बल्कि कहा कि पढा़ई की पाठशाला में बेईमानी से फेल हो सकता है लेकिन जो जीवन की पाठशाला में सफलता प्राप्त करता है, वह कभी फेल नहीं हो सकता है क्योंकि जीवन की पाठशाला ही श्रेष्ठ पाठशाला होती है।पढा़ई की पाठशाला ज्ञान तो दे सकती है लेकिन जीवन की पाठशाला कैसे और कहां उपयोग करना है सिखाती है। 
                                 राजीव रावत 
 भोपाल (म0प्र0)
(स्वरचित रचना)

#लघुकथा_आयोजन...पाठशाला (आ. शशि मित्तल "अमर" जी)

नमन मंच ✒️ बोलती है साहित्य समूह
१५/४/२०२२
विषय---पाठशाला
विधा--लघुकथा
सादर समीक्षार्थ

*लघु कथा*

      #पाठशाला

  राजेश अपने माता-पिता के साथ गाँव में रहता था, जब वह छ: साल का था, वह पाठशाला जाने लगा। 
    वह पढ़ने में भी बहुत होशियार था, शिक्षक उसे बहुत प्यार करते थे, मगर वह घर से बहुत दुखी था। सब बच्चे उसे चिढ़ाते थे, कारण कि उसके माता-पिता दोनों शराब पीते थे और खूब लड़ते थे। दोनों अनपढ़ थे।
     गाँव का सरपंच उन दोनों को रात्रिकालीन पाठशाला में जाने को कहा मगर वो नहीं गये।
  राजेश की पढ़ाई घर में हो नहीं पाती, क्योंकि उसके घर में दिन भर किच-किच होती थी।
   पड़ोसी आ कर समझाते मगर वो नशे में उन्हें गाली दे के भगा देते।
   राजेश ने ये सारी बातें अपने शिक्षक को बताई, वो समझाए कि तुम छात्रावास में आकर रहो।
 वहाँ तुम आराम से अध्ययन कर सकते हो।
   राजेश घर आकर अपना सामान रखने लगा, उसके पिताजी बोले "बेटा कहाँ जा रहे हो"? राजेश बोला आप लोग आराम से बैठ कर दारु पीजिए मैं इस घर में अब नहीं रहूंगा"।
    राजेश की माँ आकर देखती रही, फिर रोने लगी, बोली "हमारा तो एक ही बेटा है और वो भी हमारी बुरी आदतों के कारण घर छोड़ रहा है,"
वह घर मे रखी सभी बोतलें बाहर फेंक दी और बोली--
  "आग लगे ऐसी आदत को"
और अपने बेटे को गले से लगा ली।
 अब दोनों ने अपनी गलती सुधार कर शराब न पीने की कसमें खाई।
और दोनों साक्षरता अभियान के अन्तर्गत पाठशाला जाने का निर्णय लिए।

शशि मित्तल "अमर"
मौलिक

#लघुकथा_आयोजन...पाठशाला (आ. अनिता शर्मा**त्रिवेणी**जी)

नमन मंच
 "कलम ✍️ बोलती है" साहित्य समूह 
 विषय क्रमांक: 424
  विषय: पाठशाला
    विधा: *"लघुकथा"*
    15 04,22

   पाठ शाला
      (लघु कथा)

 शिवानी अपनी सहेलियों को पाठशाला जाते हुए देख रही थी।गरीब बस्ती की छोटी सी टूटी हुई झोपड़ी में वह और उसकी मां दोनो ही रहती थी।पिता का कोरो ना के चलते स्वर्गवास हो गया था।मां दूसरो के घरों में काम करके गुजारा कर रही थी।वह डरती थी कि यदि उसे भी कुछ हो गया तो बेटी को कौन देखेगा? मां शिवानी को नजर से दूर नहीं रखती थी।शिवानी का मन पाठशाला जाने को होता था।
  तभी बस्ती में एक बड़ी गाड़ी आ कर रुकी।उसमे से दो महिलाएं और दो पुरुष उतर कर झोपड़ियों में जाने लगे।श्याद सरकारी कर्मचारी थे।बस्ती वाले यहां वहां छिपने लगे।एक महिला शिवानी के घर भी आई।मां से घर के विषय में जानकारी ली।फिर शिवानी के सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा....? पाठशाला जाओगी??
   शिवानी ने खुशी के मारे हां में सिर हिला दिया।मां.....!नहीं..नहीं।यह मेरा एक ही सहारा है।इसे मैं नहीं छोड़ सकती।
   महिला ने मां को सरकारी योजनाएं और बालिका अधिकार समझाए।मां को कुछ समझ आ रहा था।तभी पुरुष कर्मचारी बोला।पास के सरकारी पाठशाला में दोपहर भोजन हेतु सेविका की आवश्यकता है।क्या आप राजी हो।मां ..की खुशी का ठिकाना न रहा।..."अब मां और शिवानी दोनो पाठशाला जाएंगी""।

    अनिता शर्मा**त्रिवेणी**
     देवास(मध्य प्रदेश)

   पूर्णतः मौलिक 🙏🏼
    अप्रकाशित 🙏🏼🌹

#लघुकथा_आयोजन.... पाठशाला ( आ. किरन पाण्डेय जी)

नमन मंच कलम बोलती है साहित्य समूह
दिनांक 15.4.2022
विषय क्रमांक 424
विषय पाठशाला
विधा लघु कथा
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मैं जब पाठशाला में शिक्षक थी उस समय मेरे बच्चे बहुत छोटे छोटे थे! 
नित्य प्रातः ही घर की जिम्मेदारी रहती थी और बच्चों को भी विद्यालय के लिए तैयार करना होता था! 
सच बहुत भागमभाग लगा रहता, काम के साथ ही उनके गृहकार्य कभी परीक्षा की तैयारी तो कभी असाइंमेंट और भी ना जाने क्या क्या❓
नये कक्षा में जाते ही नये किताब कापियाँ स्टेशनरी! बच्चों के साथ बडे़ उत्साहित हो मिल कर सब निपटाते थे! 
सच पाठशाला की शिक्षा हमारे जीवन की अमुल्य धरोहर है और सच्चे ज्ञान का भंडार भी! हम सामाजिक वातावरण के साथ मित्रता और प्रगतिशील होना अर्जित करते हैं! 

   किरन पाण्डेय
  मौलिक गोरखपुर उत्तर प्रदेश

#लघुकथा_आयोजन..पाठशाला (आ. प्रमोद कुमार चौहान जी)

कलम बोलती साहित्यक मंच
विषय -- लघुकथा (पाठशाला)
दिनांक --१५/०४/२२

पाठशाला

              

            ममता, मैं तो अपने बिट्टू से बहुत परेशान हूं आए दिन मोहल्ले वालों की शिकायत, लड़ाई, झगड़ा, सुन-सुन के तंग आ गई कुछ समझ नहीं बन रहा करूं तो करूं क्या ऐसा दीप्ति ने चेहरे पर तनाव भरे भावों से कहा ... ममता ने गंभीर भाव से सुना फिर पूछा कि बिट्टू पढ़ता कहां है . ममता ने कहा कॉन्वेंट में, तब दीप्ति ने कहा कि यदि बुरा न मानो तो मैं एक बात कहूॅं, तो ममता ने कहा इसमें बुराई की क्या बात है ।
            मुझे तो समस्या का हल मिल जाए क्योंकि अब मैं बहुत तंग आ चुकी हूॅं रोज-रोज की शिकायतें सुनकर... तब दीप्ति ने कहॉं पहले मुझे भी ऐसी शिकायतें रोज मिलती थी मेरे व्यू की पर मेरे पड़ोस में रहने वाली चाची ने मुझे सलाह दी की व्यू का नाम सरकारी पाठशाला में लिखवा दो... जहां शिक्षा के साथ संस्कार की भी शिक्षा दी जाता है ।
             ‌मैंने फिर वैसा ही किया और व्यू का नाम पाठशाला में लिखवा दिया तब से मुझे व्यू से कोई शिकायत नहीं है । दीप्ति की बात सुनकर ममता के चेहरे पर प्रसन्नता के भाव थे और वह तुरंत घर गई और अगले दिन ही उसने अपने बेटे बिट्टू का नाम सरकारी पाठशाला में लिखवा दिया, तब से बिट्टू कि कोई शिकायत नहीं आती और आज बिट्टू बहुत ही संस्कारी और गुणी छात्रों में गिना जाता है ।

               पूर्व सैनिक
         प्रमोद कुमार चौहान
     कुरवाई विदिशा मध्यप्रदेश
शा माध्यमिक विद्यालय सिरावली

#लघुकथा_आयोजन.. पाठशाला (आ. निकुंज शरद जानी)

'जय माँ शारदे '
विषय क्रमांक-424
विषय- पाठशाला
लघुकथा 
दिनांक-15-04-2022

पाठशाला 
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शुभी की रोज सुबह घुटनों तक लम्बे बालों की रिबिन वाली दो चोटियाँ बनाकर माँ पाठशाला के लिए तैयार करती हुई उस समय का उपयोग उससे कभी पहाड़े मुखाग्र कराते हुए तो कभी 
कविता पाठ कराते हुए एक पंथ दो काज करती। 
नई कोरी काॅपी- किताबें आते ही शाम के समय उन पर खाखी रंग के नये पृष्ठ चढ़ाये जाते--- पाठशाला की नई युनिफार्म, नया लंच बॉक्स और कम्पास बाॅक्स जैसे एक ऐसा उत्सव जो हर साल दिवाली के त्यौहार की तरह मनाने की धुनक रहती। 
शुभी की जीवन रीत सीखने की शुरुआत यहीं से हुई होगी----
पाठशाला विद्या के साथ कितने सलीके 
सीखाती रही। माँ ने एक बार युनिफार्म के मायने समझाते हुए कहा था देखो शुभी तुम और रधिया की बिटिया बिल्कुल एक सी लगती हो--- कौन कहेगा कि रागी नौकरानी की बेटी है---!
वहीं से शायद शुभी ने पोशाक को कभी लोगों को मापने का पैमाना बनाना और भेदभाव करना नहीं सीखा 
रागी को उसकी अगले साल की पुस्तकें मिलती और नये खाखी कवर भी----
रागी के लिए पुस्तकों की नएपन की खुश्बू से बढ़कर पुस्तकों की उपलब्धता 
मायने रखती---
शुभी को याद है रागी नये पृष्ठों पर अपना नाम बड़े जतन से लिखकर अपनेपन का एक एहसास पा लेती फिर पुस्तक उसकी अपनी हो जाती। 
रधिया तो पुरानी युनिफार्म का भी कहती लेकिन माँ नई बनवाकर देती---
माँ कहती शिक्षा पाठशाला में तब ना मिलेगी जब स्वाभिमान घर से ले कर जायेगी-----!
माँ छोटी से छोटी पेंसिल भी बचाकर रखती और यही सब उसे पाठशाला में सिखाया जाता । एक दिन घर आकर शुभी ने माँ से कहा- माँ तुम और मेरी पाठशाला बिल्कुल एक समान हो। 
मेरी शिक्षिका भी कहती है कि घर का भोजन ही स्वास्थ्य के लिए उत्तम होता है और तुम भी सुबह जल्दी उठकर मेरा लंच बनाती हो----
हम सब पाठशाला में वही प्रार्थना और प्रतीज्ञा गाते- दोहराते हैं जो तुम मुझे लोरी की तरह रोज रात सुनाती हो ।
शुभी पाठशाला में घर और घर में पाठशाला को एकाकार देख रही थी। 

पाठशाला में अध्यापिका को माँ और घर में माँ को अध्यापिका के रूप में देखते हुए उसका कोमल मन एक कोंपल को विकसित करने की प्रक्रिया में गतिशील हो चुका था जिसे आगे जाकर एक पुष्पित वृक्ष बनना था----

इस विकास की आधारशिला तो 'पाठशाला 'ही थी ----जहाँ से निकलकर वह दुनियाँ की वृहत् पाठशाला में कदम रखने वाली थी जहाँ त्रैमासिक, छःमासिक या वार्षिक परीक्षा नहीं होती--- वहाँ प्रतिदिन परीक्षा देना होता है-----।

----- निकुंज शरद जानी 
स्वरचित और मौलिक लघुकथा सादर प्रस्तुत है।

#लघुकथा_आयोजन... पाठशाला ( आ. टी . के. पांडेय जी)

कलम बोलती है साहित्यिक समूह
पाठशाला
लघु कथा

टी के पांडेय
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मनीष मेधावी था बिषय पर पूर्ण अधिकार कहिये नहीं की उत्तर प्रस्तुत। ठीक बिपरित था उसका मित्र सुरेश। मंद बुद्ध व्यक्तित्व। मनीष हमेसा शिक्षक का चहेता था बहुत करीब। एक दिन दोनों मित्र परस्पर बात कर रहे थे मनीष ने कहा, सुरेश मुझे देखो मै स्कूल में टीचर का टास्क भी नहीं बनाता फिर भो गुरुजी मुझे कुछ नहीं कहते तुझे तो डेली मार पड़ती है और कहते कहते वह हंस पड़ा।सुरेश बिल्कुल चुप उदास मन ही मन खीज गया। 
अगले दिन गुरुजी ने मनीष को उसकी कापी चेक की। बिल्कुल कोरी गुरुजी गुस्से से आग होते हुए मनीष को पिटाई कर रहे थे और सुरेश हंस रहा था अपने तिरछे नेत्र से मनीष ने सुरेश को देखा मन ही मन बुदाबूदाया, देखना, देख लूंगा। 

टी के दिल्ली

रचनाकार :- आ. संगीता चमोली जी

नमन मंच कलम बोलती है साहित्य समुह  विषय साहित्य सफर  विधा कविता दिनांक 17 अप्रैल 2023 महकती कलम की खुशबू नजर अलग हो, साहित्य के ...