दिनांक : 16/04/2022
विधा : लघुकथा
शीर्षक : "मेरी पाठशाला"
जीवन का सबसे अनमोल पल मेरी पाठशाला हुआ करती थी। पाठशाला को हम सब मंदिर के समान मानते थे। प्रतिदिन समय पर पाठशाला जाना मुझे बड़ा अच्छा लगता था। सबके साथ मिल-जुलकर पढ़ाई करना,रिसस में टिफिन झट से खतम करके दोस्तों के साथ कबड्डी खेलना बड़ा आनंददायक लगता था। रिसस में हम चार आने की दो मीठी चूरन और चार आने की दो काली चूरन खरीदकर चाटते थे। मुझे आज भी याद है कि मेरे पापा मुंबई से टेलीफोन पर मुझे अच्छे से पढाई करने और पाठशाला के सभी खेल-कूद में भाग लेने की हिदायत देते थे। गिल्ली डंडा मेरा सबसे पसंदीदा खेल था.....दादी के लाख मना करने और चिल्लाने के बावजूद भी मैं गांव के लड़कों के साथ गिल्ली डंडा खेलती थी। पाठशाला में सभी जाति-धर्म के बच्चों को समान दर्जा दिया जाता था। हम सब जमीन पर बोरिया बिछाकर बैठते थे। जमीन पर बहुत धूल मिट्टी रहती थी फिर भी हम प्राइमरी तक पीपल के पेड़ के छांव में बैठकर पढ़ते थे। संध्या पहर सूर्य के पश्चिम दिशा प्रस्थान होने पर हम सब वापस बोरिया-बस्तर लेकर पूर्व दिशा की ओर लाइन से बैठते थे। तब हम कलम या पेंसिल से नहीं बल्कि नरकट और स्याही से लिखते थे।कई मर्तबा तो स्याही की छींटे किसी के कपड़े पर चले जाने से छात्र या छात्रा रूठ जाया करते थे। मैं गुरुजी की प्रिय छात्रा थी। आज तारीख क्या है...... कौन सा दिन है........ हिंदी पुस्तक का कौन सा पाठ चालू है........ गणित में जोड़-घटाना,गुणा-भाग कहां तक हुआ है........सब मैं ही बताती थी। ऐसा नहीं कि गुरुजी बाकी सभी से नहीं पूछते थे....सबसे पूछ लेने के बाद अंत में मुझसे पूछते थे। गुरुजी प्रेम से हम सभी छात्राओं को देवी और भवानी कहकर बुलाते थे।
हमारे गुरुजी बहुत बड़े दयावान थे.... वे कभी छात्राओं को अपने पवित्र हाथों या अपनी छड़ी से दंड नहीं देते थे। जब किसी प्रश्न का उत्तर एक छात्रा न दे और दूसरी दे दे तब उस दूसरी छात्रा से पहली वाली को चार मुक्का कसकर मारने का आदेश देते थे और जिस दिन जब किसी भी प्रश्न का कोई भी छात्रा उत्तर नहीं दे पाती थी तब मुझे ही सबको मुक्का मारना पड़ता था। मुक्का मारते-मारते मेरा तो हाथ दुखने लगता था तब एक साथ चालीस-पैंतालीस लड़कियों को मुक्का मारना कोई खाने वाली बात थी? खुशी की बात ये है कि जब किसी से मेरा अनबन हो जाता था न.... तब मैं उसे चार मुक्के को आठ के बराबर जोर से कसकर मारती थी और इससे मैं अपनी पूरी भड़ास निकाल लेती थी। अगर हम धीरे से किसी को मुक्का मारते थे तो गुरुजी बोलते थे कि.....जोर से मारो देवी नहीं तो तुम मेरी छड़ी से मार खाओगी। पता है कबड्डी खेलते समय मेरी विरोधी टीम को मैं सांस टूटने पर भी खूब जमकर दबाए रखती थी। गुरूजी ने एक और अनोखा नियम बनाया था...... यदि कोई दो छात्रा पाठशाला में गुरूजी के गैर मौजूदगी में किसी बात पर लड़ाई झगड़ा किया हो तो.......गुरूजी उन दोनों की चोटी एक-दूसरे से कसकर बांध देते थे । छात्रों को गृह कार्य न करने व मार-झगड़ा करने पर उनको मुर्गा बनवाते थे या फिर एक टांग पर धूप में खड़े रहने का दंड देते थे। पाठशाला की घंटी बजते ही सब बच्चे हंसी - खुशी बोरिया-बस्तर लेकर अपने-अपने घर चले जाते थे। पाठशाला में हर शनिवार को चौरसिया गुरुजी चित्रकला बनवाते थे और गीत-भजन आदि करवाते थे। उन दिनों मुझे घर के सदस्यों से और पाठशाला में गुरूजनो से बड़ा प्यार मिलता था। आज भी उन दिनों की सुनहरी स्मृतियां मेरे हृदय को हजार मन खुशियों से भर देती है।
ममता यादव ✍️ मुंबई
स्वरचित मौलिक रचना
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