यह ब्लॉग खोजें

रविवार, 17 अप्रैल 2022

#लघुकथा_लेखन... पाठशाला (आ. आचार्या नीरू शर्मा जी)

#कलम बोलती है साहित्य समूह
#दैनिक विषय क्रमांक - 424
#दिनांक - 16.04.2022
#वार - शनिवार 
#विषय - पाठशाला
#विधा - कहानी
रामचंद्र और उनकी पत्नी नीर विनम्र,सरल,खुशमिज़ाज स्वभाव के थे। दोनों पति - पत्नी धार्मिक थे। जो भी कभी उनके पास सहायता के लिए आता वह कभी खाली हाथ नहीं जाता था,पर रामचंद्र हमेशा से अमीर नहीं थे। उन्होंने मुफ़लिसी का वह दौर जिया था जिसमें उनके पास कई-कई दिन खाने का जुगाड़ नहीं हो पाता था। वह स्वभाव से ईमानदार और मेहनती था,पत्नी नीर भी संतोष स्वभाव की थीं । <br>
रामचंद्र ने खूब मेहनत करके व्यापार में उन्नति पाई थी। अब जब इनके ऊपर लक्ष्मी की कृपा है तो वह किसी भी जरूरतमंद की सहायता से पीछे नहीं हटते । दोनों का एक ही पुत्र सूरज था जिसे वह बेहद प्रेम करते थे । जैसे - जैसे वह बड़ा हो रहा था उसके स्वभाव में अकड़ आने लगी । वह अपने मित्रों में अमीर होने का रूआब दिखाने लगा। जब रामचंद्र और उनकी पत्नी को यह पता चला तो उन्होंने उसे बहुत समझाया । वह उनके सामने तो बात मान लेता पर पीछे से सभी के साथ रौब से व्यवहार करता। 
रामचंद्र ने काफी सोच - समझकर पत्नी नीर से कुछ सलाह की। नीर ने पति की बात पर सहमति जताई । दो दिन बाद रामचंद्र ने पत्नी और बेटे को बुलाकर कहा - हमें व्यापार में काफी घाटा हो गया है और सब कुछ बेचना पड़ेगा, तो तुम दोनों सामान बाँधकर गाँव चले जाओ, मैं अगले हफ्ते तक सबके पैसों को देकर आ जाऊँगा। सूरज उदास हो गया क्योंकि अब उसे गाँव के स्कूल में पढ़ाई करनी पड़ेगी और जिन दोस्तों पर अपनी अमीरी का रौब झाड़ता था वे सब उस पर हँसेंगे। 
नीर ने बेटे सूरज के साथ गाँव आकर छोटे से घर में नए दिन की शुरूआत की। सूरज को रातभर जमीन पर सोना पड़ा और माँ ने सुबह जगाकर उसे पास के कुएँ से पानी लाने को कहा। सूरज ने पहले कभी यह काम किया नहीं था उसे तो बड़े से बाथरूम में सेवकों द्वारा पानी और सभी चीजें मिल जाती थीं । खाने के लिए अलग - अलग पकवान और घूमने के लिए गाड़ी थी। सूरज दुःखी था। 
माँ ने उसे अपने साथ ले जाकर कुएँ से पानी लेना सिखाया और कहा कल से खुद लेकर आना नहीं तो खाना समय से नहीं बन पाएगा और तुम्हें भी बिना भोजन के स्कूल जाना पड़ेगा । यहाँ तो मास्टरजी भी गर्म स्वभाव के हैं नीर ने बताया। सूरज जैसे - तैसे स्कूल जाने लगा और माँ की सहायता करने लगा । स्कूल से आकर खेत में नीर की सहायता करता। अब उसका स्वभाव नम्र हो चुका था और हर काम वह खुद से करने लगा था।
दो हफ्ते बाद रामचंद्र गाँव आया और उसने सूरज को देखा। पत्नी ने उन्हें सूरज के व्यवहार परिवर्तन की बात बताई।अगले दिन रामचंद्र ने नीर और सूरज से कहा कि अब हम वापस शहर जाकर रहेंगे। सूरज हैरान था । उसने पिता से कहा कि अब तो उनके पास वहाँ कुछ भी नहीं है, वे वहाँ कहाँ रहेंगे? रामचंद्र ने मुस्कुराकर उसे बताया कि सूरज तुम पढ़ने - लिखने में तो होशियार हो, पर तुम्हारे अंदर घमंड और अहंकार आ गया था, इसलिए जीवन की सच्चाई दिखाने और तुम्हें सही राह पर लाने के लिए हमने यह राह अपनाई । आज तुमने जीवन की पाठशाला का जो सबक सीखा है उससे तुम्हारा व्यवहार ही निर्मल नहीं हुआ अपितु तुमने मानवता और इंसानियत भी सीख ली है और यह तुम्हारे जीवन की पूँजी है। सूरज ने हाथ जोड़कर माँ और पिता से माफी माँगी और वादा किया वह हमेशा अच्छाई और सच्चाई की राह पर चलेगा और कभी कोई भेदभाव नहीं करेगा। रामचंद्र और नीर आज बेहद खुश थे। 
रचना - स्वरचित / मौलिक 
रचयिता - आचार्या नीरू शर्मा
स्थान - कांगड़ा, हिमाचल प्रदेश ।

1 टिप्पणी:

  1. मेरी पाठशाला

    जीवन का सबसे अनमोल पल मेरी पाठशाला हुआ करती थी। नए दोस्त बनाने में बड़ा मजा आता था। पाठशाला को हम सब मंदिर के समान मानते थे। प्रतिदिन समय पर पाठशाला जाना मुझे बड़ा अच्छा लगता था।
    सबके साथ मिल - जुलकर पढ़ाई करना, रिसस में टिफिन झट से खतम करके दोस्तों के साथ कबड्डी खेलना बड़ा आनंददायक लगता था। रिसस में हम चार आने की दो मीठी चूरन और चार आने की दो काली चूरन खरीदकर चाटते थे।
    मुझे आज भी याद है कि मेरे पापा मुंबई से फोन करते थे। हर रविवार पापा से बात करने के लिए मैं दोपहर के बारह बजे दादी के साथ बाजार जाया करती थी। फोन पर पापा मुझे अच्छे से पढाई करने और पाठशाला के सभी खेल - कूद में भाग लेने की हिदायत देते थे। मुंबई से आए किसी सगे - संबंधी या फिर अपने दोस्तों से पापा मुझे मेरी पसंद के कपड़े - हेयर बैंड, खारी - बटर, बिस्किट - नमकीन,साबुन - शैंपू और खिलौने भेजते थे। गर्मी की छुट्टी में पापा मेरे लिए लूडो और राजश्री व धर्मा प्रोडक्शन की डीवीडी की थ्री इन वन, सिक्स इन वन कैसेट लाते थे। हम चार भाई - बहन गर्मियों के दिनों में सीडी में पिक्चर लगाकर देखते थे और गांव के बच्चों के साथ बाहर बरामदे में तख्ते पर बैठकर लूडो खेला करते थे। बड़े भईया के साथ मैं कभी - कभी क्रिकेट भी खेलती थी। गिल्ली डंडा मेरा सबसे पसंदीदा खेल था.....दादी के लाख मना करने और चिल्लाने के बावजूद भी मैं गांव के लड़कों के साथ गिल्ली डंडा खेलती थी।
    पाठशाला में सभी जाति - धर्म के बच्चों को समान दर्जा दिया जाता था। हम सब जमीन पर बोरिया बिछाकर बैठते थे। जमीन पर बहुत धूल मिट्टी रहती थी फिर भी हम प्राइमरी तक पीपल के पेड़ के छांव में बैठकर पढ़ते थे। संध्या पहर सूर्य के पश्चिम दिशा प्रस्थान होने पर हम सब वापस बोरिया - बस्तर लेकर पूर्व दिशा की ओर लाइन से बैठते थे। तब हम कलम या पेंसिल से नहीं बल्कि नरकट से लिखते थे। नरकट एक प्रकार की झाड़ होती थी उसके पोलो को छीलकर पेंसिल बनाते थे और उसको स्याही में डुबाकर छिड़ककर लिखते थे। कई मर्तबा तो स्याही की छींटे किसी के कपड़े पर चले जाने से छात्र या छात्रा रूठ जाया करते थे। मैं गुरुजी की प्रिय छात्रा थी। आज तारीख क्या है...... कौन सा दिन है........ हिंदी पुस्तक का कौन सा पाठ चालू है........ व्याकरण में कौन सा लिंग अभी बाकी है...... गणित में जोड़ - घटाना, गुणा - भाग कहां तक हुआ है........ वगैरह - वगैरह सब मैं ही बताती थी। ऐसा नहीं कि गुरुजी बाकी सभी से नहीं पूछते थे....सबसे पूछ लेने के बाद अंत में मुझसे पूछते थे। ज्यादातर किसी से सही उत्तर नहीं मिलता था पर कभी - कभार कोई सही उत्तर दे देता था। गुरुजी प्रेम से हम सभी छात्राओं को देवी और भवानी कहकर बुलाते थे। गुरुजी बहुत दयावान थे.... वे कभी छात्राओं को हाथ से या अपनी छड़ी से नहीं मारते थे । जब किसी प्रश्न का उत्तर एक छात्रा न दे और दूसरी दे दे तब उस दूसरी छात्रा से पहली वाली को चार मुक्का कसकर मारने का आदेश देते थे और जिस दिन जब किसी भी प्रश्न का कोई भी छात्रा उत्तर नहीं दे पाती थी तब मुझे ही सबको मुक्का मारना पड़ता था। खुशी की बात ये है कि जब किसी से मेरा अनबन हो जाता था न.... तब मैं उसे चार मुक्के को आठ के बराबर जोर से कसकर मारती थी और इससे मैं अपनी पूरी भड़ास निकाल लेती थी। अगर हम धीरे से किसी को मुक्का मारते थे तो गुरुजी बोलते थे कि.....जोर से मारो देवी नहीं तो तुम मेरी छड़ी से मार खाओगी। मजे की बात यह है कि मेरी प्रिय सहेली को मैं धीरे से मुक्का मारती थी। पता है कबड्डी खेलते समय मेरी विरोधी टीम को मैं सांस टूटने पर भी खूब जमकर दबाए रखती थी। गुरूजी ने एक और अनोखा नियम बनाया था...... यदि कोई दो छात्रा पाठशाला में गुरूजी के गैर मौजूदगी में किसी बात पर लड़ाई झगड़ा किया हो तो.......गुरूजी उन दोनों की चोटी एक - दूसरे से कसकर बांध देते थे फिर पंद्रह - बीस मिनट बाद चोटी छुड़वाकर कान पकड़कर पचास बार उठक - बैठक करवाते थे और उसके साथ आगे से वापस लड़ाई न करने की हिदायत देते थे। छात्रों को गृह कार्य न करने व मार - झगड़ा करने पर उनको मुर्गा बनवाते थे या फिर एक टांग पर धूप में खड़े रहने का दंड देते थे। पाठशाला की घंटी बजते ही सब बच्चे हंसी - खुशी बोरिया - बस्तर लेकर अपने - अपने घर चले जाते थे। पाठशाला में हर शनिवार को चौरसिया गुरुजी चित्रकला बनवाते थे और गीत - भजन आदि करवाते थे...जिसमें मेरे चित्र को और मेरे भजन को बहुत सराहना मिलती थी। उन दिनों मुझे घर के सदस्यों से और पाठशाला में गुरूजी से बड़ा प्यार मिलता था। तब हम बेफिक्र होकर चैन और सुकून से जिया करते थे.... तब हमें दुनियादारी से कोई लेना - देना नहीं था।
    आज भी उन दिनों की सुनहरी स्मृतियां मेरे हृदय को हजार मन खुशियों से भर देती है।

    ममता यादव✍️
    मुंबई
    स्वरचित मौलिक रचना

    जवाब देंहटाएं

रचनाकार :- आ. संगीता चमोली जी

नमन मंच कलम बोलती है साहित्य समुह  विषय साहित्य सफर  विधा कविता दिनांक 17 अप्रैल 2023 महकती कलम की खुशबू नजर अलग हो, साहित्य के ...