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बरसों बाद वह, अपने गाँव आया था। विदेश में बस जाने के बाद भी, वह, अपने गाँव, गाँव के लोगों, पाठशाला, गुरुजी एवं सहपाठियों को नहीं भूल पाया था।
उसे याद है सुबह एक मुट्ठी चूड़ा, पानी में भिंगोकर, थोड़ा गुड़ के साथ, माँ, उसे नाश्ते के रूप में, खाने को दे देती थी।
पानी पीकर, स्लेट-पेंसिल और एक छोटी सी चटाई या बोरिया लेकर, वह, पाठशाला की ओर दौड़ जाता।
वहाँ शीघ्र प्रार्थना शुरू हो जाती। वह चुपके से शामिल हो जाता। गुरुजी की नजर, उस पर पड़ती। वह संकोच में सिमट जाता।
गुरु जी प्रेम से, उसे बुलाते और प्रार्थना गाने को कहते। उसकी आवाज अच्छी थी। ऐसा सब लोग कहते थे।
प्रार्थना के बाद, पाठशाला के बरामदे में कक्षा आरंभ होती। सभी बच्चे अपनी बोरिया बिछाकर बैठ जाते। गुरु जी श्याम-पट पर कुछ लिखते। बच्चों को अपनी स्लेट-पेंसिल निकालने को कहते।
शहर के स्कूल में जाने से पहले, उसने पाठशाला में, बहुत कुछ सीखा। वर्णमाला, गिनती, पहाड़ा, जोड़-घटाव-गुणा-भाग, भूगोल, इतिहास का आरंभिक ज्ञान। विशेष अवसरों पर प्रभातफेरियों का आयोजन होता था।
सभी उत्साह-पूर्वक देश-भक्ति-पूर्ण नारे लगाते हुए, गाँव की गलियों से गुजरते थे। राष्ट्र-गान और राष्ट्र-गीत पूरा कंठस्थ, वहीं हो गए थे।
रामायण-महाभारत से लेकर महापुरुषों की जीवनी से संक्षिप्त परिचय कराया गया था।
स्वास्थ्य-स्वच्छता-संबंधी नियम, सादगी- सच्चाई, बड़ों का आदर, पशु-धन की सेवा, बागवानी, घरेलू औषधियों और न जाने, कितनी बातें सिखायी गई थीं।
भारत से दूर रहते हुए, वह बचपन में दिये गये शिक्षा-संस्कार को भूला नहीं था। जीवन में, जो सफलता मिली, उसका कुछ श्रेय, पाठशाला की पढ़ाई को भी जाता था।
आज पाठशाला भवन की भग्नावस्था को देखकर वह चिंतित एवं लज्जित हुआ। उसने इसके जीर्णोद्धार का संकल्प लिया।
--- गोपाल सिन्हा,
पटना,
१६-४-२०२२
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